दिल से दिल्लीवाले

अपनी स्टोरी सबमिट करें

कौन करेगा किसी पराए के लिए इतना

वीरेंद्र वर्मा, नई दिल्ली।

सखी जॉन को याद है जब वे 26 अप्रैल,1992 को पहली बार दिल्ली आए थे। वे सुदूर केरल के त्रिरुवल्ला जिले से यहां हास्पिटल मैनेजमेंट का कोर्स करने के इरादे से आए थे। उनके पास एक अटैची भर थी। वे यहां की भीड़-भाड़ और सड़कों पर व्याप्त अराजकता से सहम गए थे। केरल के शांत और व्यवस्थित जीवन से पूरी तरह से अलग था यहां का संसार। सखी ने नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से सेंट स्टीफंस अस्पताल के लिए थ्री व्हीलर लिया। वहां पर चलने वाले हास्पिटल मैनेजमेंट के कोर्स में उनका दाखिल हो ही हुआ चुका था। उन्होंने अस्पताल परिसर में ही रहना चालू कर दिया। पढ़ाई शुरू हो गई।
नापा साइकिल से
इसके साथ ही सखी ने दिल्ली की सड़कों को अपनी साइकिल से नापना भी चालू कर दिया। वे तीस हजारी, कमला नगर, प्रताप नंगर, मजनूं का टीला वगैरह तक साइकिल से घूमते। जब मौका मिलता तो वे बच्चों को पढ़ाने लगते। बच्चों में तो उनकी जान है। यहां से अपनी पढ़ाई पूरी करते ही उन्हें जामिया हमदर्द यूनिवर्सिटी में नौकरी मिल गई। ये 1997 के आसपास की बातें हैं। अब वे पहुंच गए महरौली-बदरपुर रोड़ पर स्थित जामिया हमदर्द यूनिवर्सिटी। सखी जो कुछ सेंट स्टीफंस हास्पिटल में रहने के दौरान कर रहे थे, वो ही सब वे अपने नए ठिकाने पर भी करने लगे। यहां के आसपास की झुग्गियों में रहने वाले बच्चों को पढ़ाने लगे। यहां पर रहते हुए ही उन्हें इसी क्षेत्र में सक्रिय ‘दीपालय’ नाम की एक स्वयंसेवी सेवी संस्था के बारे में पता चला। सखी कहने लगे कि दीपालय में निर्धन परिवारों के बच्चों, महिलाओं और नौजवानों को पढ़ाई और वोकेशनल ट्रेनिंग दी जा रही थी। कुल मिलाकर इसका मकसद ये है कि सब स्वावलंबी हो जाएं। ये सिलसिला 1979 से चल रहा था। “मैं इसकी गतिविधियों से भी जुड़ गया। मेरी समाज सेवा करने को लेकर ऊर्जा सही दिशा में लगने लगी,” 46 साल के सखी बताते हैं।
इसी बीच, जामिया हमदर्द यूनिवर्सिटी ने उन्हें हेल्थ और हास्पिटल मैनेजमेंट में शोध करने के लिए दो साल का अवकाश दे दिया। वे अपने शोध को करते हुए समाज सेवा से भी जुड़े रहे। उनका शोध कार्य पूरा होते ही उनकी जामिया हमदर्द यूनिवर्सिटी के डिपार्टमेंट आफ हेल्थ एंड हास्पिटल मैंनेजमेंट में अध्यापक के पद पर नियुक्ति हो गई। अब अध्यापन और समाज सेवा साथ-साथ चलने लगी।

कोन है अल सुबह यमुना की सफाई करने वाला

विवेक शुक्ला ।

दिल्ली की हड्डियां गला देने वाली सर्दियों में अलसुबह एक शख्स रोज साढ़े चार बजे के आसपास यमुना नदी पर बने आईटीओ पुल पहुंचता है। वह लक्ष्मी नगर से आता है। अपनी साइकिल ठीक वहां पर खड़ी कर देता है, जहां पर जालियां लगी हैं और नीचे नाले में तब्दील हो गई यमुना जैसे-तैसे बह रही होती है। वह जल्दी-जल्दी उन जालियों पर लटकी हुई प्लास्टिक की थैलियों को उतारकर एक लिफाफे में रखने लगता है। इन थैलियों में कथित भकतगण ना नामें कचरा डालने आते हैं और थैलियों को छोड़कर निकल लेते हैं। इनके धतकरम को साफ करते हैं अशोक उपाध्याय। वह यमुना को अपनी मां सरीखा ही मानते हैं। उम्र होगी साठ साल।

15 सालों से यमुना से कूड़ा निकाल रहे हैं अशोक अगला काम पौधों को पानी... अशोक उपाध्याय थैलियों को इकट्ठा. < करके अपनी साइकिल के पीछे एक म् पैकेट में बांधकर निकलते हैं जनपथ। वहां एनडीएमसी के कूड़ाघर में थैलियों. र को डाल देते हैं। तब तक साढ़े पांच बज रहे होते हैं। अब पेशे से अखबारों. < के हॉकर अशोक उपाध्याय जनपथ के. हर अपने सेंटर में अखबारों-पत्रिकाओं को लेने में बिजी हो जाते हैं। फिर उनके बांटने का काम चालू होता है। यह काम" सुबह आठ बजे से कुछ पहले समाप्त ' कर लेते हैं। अब उन्हें उन आम, नीम,. २ जामुन के पौधों को पानी देना है,जो उन्होंने अपने साथियों, ग्राहकों और ै परिवार के सदस्यों के साथ मिलकर ५ यमुना तीरे लगाए हैं। ५ क्यों सुबह-शाम यमुना की सफाई... करते रहते हो? भावुक होते हुए वह इस सवाल का जवाब देते हैं, 'अपनी मां..“« के निधन के बाद अंदर तक टूट गया... था। मुझे उनकी हर पल कमी सतने..' लगी। मैं बचपन से ही अपने माता-पिता. 1 के साथ लक्ष्मी नगर से यमुना नदी में. : किसी तीज-त्योहार के मैके पर आता... था। इसलिए यमुना के प्रति भी मां वाली आस्था का भाव था। एक दिन मुझे कहीं से अंदर से आवाज आई कि यमुना की सफाई के रूप में सेवा करने से मेरे दिवंगत माता-पिता प्रसन्न होंगे। फिर मैंने यमुना की अपने स्तर पर सेवा पु करनी चालू कर दी। अब ये सब करते पे हुए करीब 15 साल हो गए हैं।'

हर साल दिल्‍ली को देते हैं ढाई करोड़ लीटर पानी

जल संकट से जूझ रहे शहरों में जहां लोग अपने घरों में भी पानी बचाने के लिए ज्यादा सजग नहीं दिखते, वहां एक 60 साल का ऐसा बुजुर्ग भी रहता है जिसने पिछले 20 सालों में दिल्‍लीवालों के लिए हजारों-लाखों लीटर पानी की बचत की है ओर आगे भी इस कोशिश में पूरी मुस्तेदी से लगा है। इस बुजुर्ग का मिशन है- पानी के मामले में दिल्‍ली को आत्मनिर्भर बनाना। इनकी कोशिशों का नतीजा है कि राष्ट्रीय राजधानी के 6,000 स्कूलों में से 2000 से ज्यादा स्कूल और दिल्‍ली यूनिवर्सिटी के कॉलेज हर साल लाखों लीटर बारिश के पानी को बचाकर धरती का गला सूखने से बचाने में अपना योगदान दे रहे हैं। सबसे कीमती रिसोर्स को बचाने की मुहिम में लगे महेश सक्सेना की पूरी कहानी बता रही हैं प्राची :

पानी बचाने का मिशन समाज और पर्यावरण के लिए काम में लगे महेश सक्सेना दिल्ली जल बोर्ड में पिछले 40 सालों से काम कर रहे हैं। काम करते हुए ही उन्हें दिल्‍ली की धरती के सूखते गले का अहसास हुआ। फिर क्या? उन्होंने जल संरक्षण को अपने जीवन का मकसद और बारिश के पानी को संचित करना (एरेज़ात्र3) मिशन बना लिया। इसकी शुरुआत भी सबसे पहले अपने घर से की। वह बताते हैं, 'छतरपुर एन्कक्‍लेव-फेज 1 में मेरा 70 : वर्गधीटर का घर है, इसमें मैंने रेन वॉटर : हार्वेस्टिंग सिस्टम बनाया है। एक वक्‍त में : 100 मीटर की छत से 50,000 लीटर बारिश का पानी जमा होता है, जिसे बर्बाद होने से बचाकर 7२ज़ात्र$ के जरिए सीधे जमीन तक पहुंचाया जा सकता है ।' बुजुर्ग ने सालों से अब तक लाखों लीटर बारिश . के पानी को बर्बद होने से बचाया है। अपने इलाके के मंदिरों, पार्क और स्कूलों . तक में वह यह काम कर रहे हैं।

सत्यनारायण मंदिर में रेन
वॉटर हार्वेस्टिंग सिस्टम महरौली-बदरपुर रोड पर बने मंदिर में भी सक्सेना द्वारा तेयार रेन वॉटर हार्वेस्टिंग सिस्टम लगा है। महेश हर साल 2.50 करोड़ लीटर से ज्यादा पानी बनाकर ग्राउंडवॉटर रीचार्ज करने में मदद कर रहे हैं। साकेत मेट्रो स्टेशन के पास एक सीनियर सेकंडरी स्कूल में भी इन्हीं के डिजाइन की तर्ज पर एज की जा रही है। छतरपुर और साकेत से बाहर पूरी दिल्‍ली में जितने भी सरकारी और प्राइवेट स्कूल चल रहे हैं- उनमें भी सक्सेना की कोशिशों के चलते बारिश का लाखों लीटर पानी बर्बाद होने से बच रहा है।

ये लंदनवाली हुई दिल्ली वाली

वेस्ट निजामुद्दीन के लिए जाना-पहचाना चेहरा है जिलियन राइट का। इधर एक अरसे से रहती हैं वो। वो यहां के दूकानदारों से लेकर सब्जीवालों तक से हिन्दी में ही भाव-ताव करती हैं। हालांकि पहली बार जब कोई उन्हें हिन्दी में बातचीत करते हुए देखकर हैरान अवश्य हो जाता है। हैरान होना लाजिमी ही है। आखिर कितने गोरे मतलब ब्रिटेन वाले हिन्दी बोल पाते हैं? राइट का मूड खराब हो जाता है जब कुतुब मीनार या हुमायूं का मकबरा जैसे पर्यटक स्थलों पर उन्हें विदेशी समझकर अधिक एंट्री फीस मांगी जाती है। हिन्दी और उर्दू की प्रख्यात अनुवादक जिलियन राइट कहती हैं, "मैं भारतीय हूं, अपना इनकम टैक्स देती हूं, फिर आप मेरे से अधिक एंट्री फीस क्यों ले रहे हो?" उनकी बात तो सही है। उन्होंने भारत की नागरिकता ले ली है। वो दिल्ली को प्रेम करने वाले किसी भी अन्य शख्स की तरह यहां पर पेड़ों की कटाई से लेकर यमुना के प्रदूषित होने के कारण निराश हैं। उनकी निराश इसलिए और बढ़ जाती हैं, जब वो देखती हैं कि हम सुधर ही नहीं रहे। पिछले साल जब सुंदर नगर और मथुरा रोड पर लगे दर्जनों पेड़ों को काट दिया गया था, वो तब वहां के अन्य स्थानीय नागरिकों के साथ सड़कों पर उतरीं थीं। वो नाराज थीं कि कोई कैसे इन पेड़ों को स्थानीय निवासियों से पूछे बगैर काट सकता है? मथुरा रोड पर लगे दर्जनों नीम के पेड़ों को काट दिया गया था। वे सभी पेड़ लगभग 70 वर्ष से अधिक उम्र के थे। ये दिल्ली को छाया देकर अपने होने का अहसास करा रहे थे। दिल्ली सरकार ने अपने किसी आगामी प्रोजेक्ट के कारण इन्हें काटा। उसके बाद मथुरा रोड़ पर एक तगड़ा विरोध मार्च निकला। उसमें राइट की भी सक्रिय भागेदारी रही थी। वो निजामुद्दीन एरिया के सामाजिक कार्यकर्ता फरहद सूरी के आग्रह पर उस मार्च से जुड़ी थीं। जिलियन राइट उदास हो जाती है जब देखती हैं कि सुबह के वक्त यमुना नदी पर कारें रोक-रोककर लोग पूजा सामग्री आदि डाल रहे होते। उन्हें रोकने वाला कोई नहीं होता। वो मानती हैं कि यमुना को प्रदूषित करने का ही नतीजा है कि अब इसके आसपास विचरण करने वाली सफेद बिल्लियां देखने में नहीं आती। सत्तर के दशक तो हालात ठीक थे। उसके बाद स्थिति हाथ से निकल गईं। अफसोस साइकिल ना चला पाने का गिलियन राइट 1977 में दिल्ली में आ गई थीं। तब से अब तक कितनी बदली दिल्ली ? कहती हैं, " मैं जब 40 साल पहले यहां आई थी तब ये शहर बहुत हरा-भरा था। तब से विकास के नाम पर पेड़ कटते रहे, हरियाली घटती रही। अब ये शहर कंक्रीट का जंगल सा हो गया है। मुझे अब बहुत से परिंदे दिखाई नहीं देते,जो पहले खूब दिखते थे। अब सड़कों पर साइकिल भी नहीं चला पातीं हूं। सड़कों पर साइकिलों वालों के लिए स्पेस ही नहीं बचा। अब सिर्फ कारों वालों के बारे में सोचा जाता है।” जाहिर है,ये शिकायत सिर्फ राइट जी की ही नहीं है। यहां पर विकास योजनाओं में साइकिल चलाने वालों के लिए किसी ने सोचा ही नहीं। सड़कों से साइकिल वालों को बाहर का रास्ता दिखा दिया। फिर भी प्यारी लगती दिल्ली गिलियन राइट को इन सब बातों के बावजूद दिल्ली से बेहतर कोई शहर नहीं लगता। वो इसे छोड़ नहीं सकतीं। अब ब्रिटेन वापस जाकर बसने का तो सवाल ही नहीं है। अब भारत के प्रति निष्ठा निर्विवाद है। दिल्ली में सबसे अच्छा क्या लगता है? तुरंत जवाब मिलता है, “ सच बोलूं तो दिल्ली में आप कभी बोर नहीं होते। यहां पर आपके दोस्त-यार आपसे मिलते-जुलते रहते हैं। हम भी अपने दोस्तों से मिलना पसंद करते हैं। ये सब खूबियां यूरोप के समाज में नहीं मिलती।” अनुवाद ही अनुवाद गिलियन राइट यहां विख्यात लेखक और पत्रकार सर मार्क टली के साथ रहती हैं। वो भी खूब बेहतर हिन्दी बोल लेते हैं। राइट लंदन में बीबीसी में भी काम करती थीं। हिन्दी और उर्दू का इतना गहन अध्ययन किया कि भारत आने के बाद राही मासूम रजा और श्रीलाल शुक्ला के उपन्यासों क्रमश: ‘आधा गांव’ और ‘राग दरबारी’का अंग्रेजी में अनुवाद ही कर दिया। उनके अनुवाद को पढ़कर ही, इन दोनों लेखकों को गैर-हिन्दी पाठकों ने जाना-समझा। राइट कहती हैं कि ‘आधा गांव’ में ‘राग दरबारी’ से ज्यादा आंचलिकता का असर है। वो ‘आधा गांव’ के माहौल और भाषा को ज्यादा करीब से समझने के लिए राही मासूस रजा साहब के परिवार के सदस्यों से मिली भी। कई इमामबाड़ों में गई और मर्सिया देखा। उन्हें ये सब करने से ‘आधा गांव’ का अनुवाद करने में मदद मिली। उनके पसंदीदा उपन्यासों में ‘राग दरबारी’ भी है। उन्होंने भीष्म साहनी की कहानियों का भी अनुवाद किया। दिल्ली के बाद उन्हें उत्तर प्रदेश पसंद है। ‘आधा गांव’ और ‘राग दरबारी’ का अनुवाद करने वाला उत्तर प्रदेश से दूर नहीं जा सकता।

दिल्ली के पारसी कैसे-कैसेी

दिल्ली और मुंबई के पारसी समाज कुछ अलग हैं। इनमें समानता कम है। जहां मुंबई में आपको टाटा,गोदरेज, वाडिया समेत और भी कई मशहूर पारसी मिलते हैं। दिल्ली में पारसी बिरादरी के सदस्य मुख्य रूप से वकालत और शिक्षा जैसे पेशों से जुड़े हैं। दिल्ली में इनकी तादाद सिर्फ 700 के आसपास है। इसलिए ही पारसी नव वर्ष पर जो रौनक मुंबई में देखने को मिलती है, उसका दिल्ली में अभाव रहता है। यहां इनकी गतिविधियों का केन्द्र बहादुरशाह जफर मार्ग स्थित पारसी अंजुमन ही है। कश्मीरी गेट वाले नोवी खेल कमेंटेटर नोवी कपाड़िया दिल्ली के मूल पारसी समाज से संबंध रखते हैं। वे खालसा कालेज में अंग्रेजी पढ़ाते हैं। चोटी के स्पोर्ट्स राइटर भी हैं। दिल्ली में एक दौर कश्मीरी गेट और मोरी गेट में दर्जनों पारसी परिवार रहा करते थे।कश्मीरी गेट-मोरी गेट से निकलकर कुछ पारसी परिवार डिफेंस कालोनी में भी रहने लगे। अब भी डिफेंस कालोनी में 5-7 पारसी परिवार रहते हैं। कुछ पारसी परिवार गुड़गांव में भी शिफ्ट कर गए।दिल्ली के पारसी हिन्दी ही बोलते है अपने निजी जीवन में। हालांकि सबका मूल स्थान तो गुजरात ही है। 1869 से दिल्ली में दिल्ली में कब से हैं पारसी? इस सवाल का जवाब मिलता है इंडिया गेट के करीब पृथ्वीराज रोड पर स्थित पारसी कब्रिस्तान में जाकर। वहां पर एक पत्थर पर लिखा है कि सबसे पहले पारसी दिल्ली में 1869 में आए। दिल्ली के प्रमुख पारसियों में दादी मिस्त्री रहे हैं। वे लंबे समय तक मिनोरिटी कमिशन के मेंबर रहे। उनका परिवार करीब 50 सालों से दिल्ली में बसा हुआ है। वो भी मुंबई से ही है। पर दिल्ली आ गए थे। अशोक होटल वाले डाक्टर राजधानी के पहले पांच सितारा अशोक होटल का डिजाइन भी एक मुंबई के पारसी प्रो. ई.बी.डाक्टर ने ही तैयार किया था। डाक्टर के ऊपर जिम्मेदारी थी कि वो 25 एकड़ क्षेत्रफल में होटल का डिजाइन बनाएं। उन्होंने इधर 500 कमरे दिए और 225 पेड़ों के लिए स्पेस निकाला। ये लगभग सभी पेड़ गुलमोहर के हैं। कुछ आम के भी हैं। इनसे उतरने वाले आमों से ही यहां अचार और जैम तैयार होती है। इस बीच, दिल्ली के पारसी भी अपनी तेजी से घटती आबादी से परेशान हैं। दिल्ली पारसी अंजुमन कुछ समय पहले एक प्रस्ताव लेकर आया था, जिसमें पारसी समाज में शादी करने वाले गैर-पारसियों को भी अंजुमन की गतिविधियों से जोड़ने की सिफारिश की गई थी। पर इस प्रस्ताव का कड़ा विरोध शुरू हो गया था। नरीमन-सोराबजी दिल्ली में लंबे समय से कम से कम दो पारसियों क्रमश: फली नरीमन और सोली सोराबजी का लीगल क्षेत्र में दबदबा है। ये दोनों मूल से तो मुंबई कर हैं, पर अब दिल्ली वाले हो चुके हैं। यहां पर ही रहते हैं। फली नरीमन जब कोर्ट में जिरह करते हैं,तब अपने तर्कों को वजनदार बनाने के लिए पुराने फैसलों और परम्पराओं की झड़ी लगा देते हैं। उनकी स्मरण शक्ति गजब की हे। अगर बात सोली सोराबजी की हो तो वे जब जिरह करते हैं तो कही किसी तरह का कंफ्यूजन नहीं होता। उऩ्हें जेंटिलमेन वकील भी कहा जाता है। उनके तर्क अकाट्य रहते हैं।

खुखरायण - मनमोहन सिंह से विराट कोहली

यदि आपका पटेल नगर, कीर्ति नगर और विशाल एंक्लेव आना-जाना रहता है, तब आपने इन सब जगहों में खुखरायण भवन देखे होंगे। ये कोई बहुत बड़े तो नहीं हैं, इधर कुछ देऱ खड़े होंगे तो एकत्र लोग एक-दूसरे को कोहली जी, आनंद जी, सूरी जी, साहनी जी, सब्बरवाल जी कह कर संबोधित कर रहे होंगे। उधर यमुनापार के शाहदरा, कृष्णा नगर, प्रीत विहार, विवेक विहार में खुखरायण भवन तो नहीं हैं, पर खुखरायण समाज में कमाल का भाईचारा देखने को मिलताहै। खुखरायण परिवारों की इन सभी क्षेत्रों में भाऱी तादाद है। ये सभी देश के बंटवारे के बाद पाकिस्तान के पंजाब प्रांत से विस्थापित होकर दिल्ली आए थे। कह सकते हैं कि दिल्ली में 1947 से पहले 200 खुखरायण समाज के लोग नहीं होंगे। यानी बंटवारे ने अन्य शहरों की तरह से दिल्ली की आबादी का चरित्र भी बदल कर रख दिया। खुशवंत सिंह कहते थे कि “खुखरायण पंजाबी खत्रियों का एक जाति समूह है, इसमें कोहली भी शामिल हैं। देश के पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और उनकी पत्नी गुरशरण कौर भी कोहली ही हैं। इनके अलावा इसमें साहनी, घई, चंडोक, चड्ढा, आनंद, सब्बरवाल, सूरी, भसीन व ऐसी अन्य जातियां व उपजातियां जो एक-दूसरे से वैवाहिक रिश्ते कायम करने को प्राथमिकता देती हैं।” महत्वपूर्ण ये भी है कि खुखरायण समाज में हिन्दू और सिख दोनों हैं। हिन्दी-सिख दोनों खुखरायण खालसा कॉलेज की मैनेजिंग कमेटी के चेयरमेन और पूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह के मीडिया सलाहकार श्री त्रिलोचन सिंह कहते हैं- “ हिन्दू-सिख एक-दूसरे से इस तरह से घुले- मिले हुए हैं, जैसे दूध में चीनी। खुखरायण समाज के हिन्दुओं के लिए गुरुनानक देव जी आराध्य हैं। इसी तरह से हरेक सिख खुखरायण शिव जी, हनुमान जी और दुर्गा की पूजा करता है। इनमें किसी तरह की कोई दूरी नहीं है। ” राजधानी की खुखरायण बिरादरी के वरिष्ठ सदस्य श्री ब्रज मोहन सेठी कहते हैं कि हमारे समाज की राजधानी में कुल आबादी पांच-छह लाख से कम नहीं होगी। सब एक-दूसरे से जुड़े हैं। ये पाकिस्तान के भेरा, रावलपिंडी, झेलम जैसे स्थानों से दिल्ली आए थे। ये लगभग सभी बिजनेस करते हैं। नौकरी करने वाले गिनती के होंगे। इनके दिल्ली में बने सभी भवनों में डिस्पेंसरी भी चलती है। पहाड़गंज के उदासीन आश्रम में एक खुखरायण धर्मशाला भी है। ये आराम बाग के पास है। खुखरायण शब्द की उत्पत्ति खुखरायण शब्द की उत्पत्ति कैसे हुई? इस सवाल का कोई संतोषजनक उत्तर नहीं मिल पाता। यमुनापार में खुखरायण समाज के सक्रिय सदस्य बलबीर सिंह विवेक विहार कहते हैं कि हमने 20-25 साल पहले खुखरायण परिवारों को जोड़ना शुरू किया। सबको खुखरायण शब्द जोड़ता था। अब हर साल होली मिलन-दिवाली मिलन पर बड़े आयोजनों के अलावा छोटे-मोटे कार्यक्रम होते रहते हैं। अब जब सबने पैसा कमा लिया है तो यहां पर सामाजिक गतिविधियों में भी सक्रिय हो गए हैं। दिल्ली आने के कई सालों तक अपने को जमाने में ही लग गए थे। एक बार इधर बिजनेस में सफल होने के बाद खुखरायण समाज समाजिक रूप से भी सक्रिय हुआ। बलबीर सिंह विवेक विहार दिल्ली सिख गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के आला पदाधिकारी भी रहे हैं। दिल्ली में खुखरायण समाज को एक साथ जोड़ने में दिल्ली के मुख्य कार्यकारी पार्षद केदार नाथ साहनी,तिलक मार्ग पर सागर अपार्टमेंट्स बनाने वाले वाले कारोबारी सागर सूरी, सरदार गुलाब सिंह सेठी और रैनबैक्सी फार्मा के फाउंडर चेयरमेन भाई मोहन सिंह खास थे। भाई मोहन सिंह का सरनेम चड्ढा थे। ये अपने समाज के लोगों के सुख-दुख में खड़े होते थे। खुखरायण मुंडा विराट कोहली लेखक गुरुप्रीत सिंह आनंद कहते हैं कि दिल्ली के खुखरायण भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान विराट कोहली पर फख्र करते हैं। विराट कोहली हमारे समाज की शान है। वो लगातार बुलंदियों को छूता ही चला जा रहा है। इनके अपने नायकों में हिन्दी के वरिष्ठ लेखक भीष्म साहनी और डॉ नरेन्द्र कोहली भी हैं। दोनों लंबे समय तक दिल्ली यूनिवर्सिटी में प़ढ़ाते रहे। दोनों ने कालजयी लेखन किया है। भीष्म साहनी तो जीवनभर खुखरायण समाज के गढ़ पटेल नगर में ही रहे। भीष्म साहनी के अग्रज और बेहतरीन एक्टर बलराज साहनी ने खुखरायण समाज पर एक किताब भी लिखी थी। श्री त्रिलोचन सिंह स्पष्ट करते हैं कि हम अपनी अपनी बिरादरी की बात तो करते हैं, पर हम जातिवादी नहीं है। हमारे समाज के लड़के-लड़कियां अन्य जातियों में विवाह करते हैं। खुखरायण समाज पर लक्ष्मी के साथ सरस्वती की भी कृपा है। ये पढ़ने लिखने पर खूब जोर देते हैं। इस बीच, कुछ खुखरायण अमिताभ बच्चन को भी अपने समाज का अंग ही मानते हैं क्योंकि उनकी मां तेजी जी आनंद परिवार से थीं। इसी तरह से मेनका गांधी को भी खुखरायण बिरादरी अपना ही समझती है। मेनका गांधी का मायका भी खुखरायण था। कहते हैं, खुखरायण समाज के कुछ सदस्यों ने बाबा फरीद के प्रभाव के चलते इस्लाम भी स्वीकार भी कर लिया था। जाहिर है कि वे 1947 के बाद भारत तो नहीं आए। पर वे पाकिस्तान में भी अपनी एक अलग पहचान को कायम किए हुए हैं। इनमें पाकिस्तान के फ्राइडे टाइम्स के एडिटर नज्म सेठी भी हैं। वे अपने को खुखरायण बताते हैं।

कम्यूनिटीस ऑफ दिल्लीा

दिल्ली के पारसी कैसे-कैसे

विवेक शुक्ला

दिल्ली और मुंबई के पारसी समाज कुछ अलग हैं। इनमें समानता कम है। जहां मुंबई में आपको टाटा,गोदरेज, वाडिया समेत और भी कई मशहूर पारसी मिलते हैं। दिल्ली में पारसी बिरादरी के सदस्य मुख्य रूप से वकालत और शिक्षा जैसे पेशों से जुड़े हैं। दिल्ली में इनकी तादाद सिर्फ 700 के आसपास है। इसलिए ही पारसी नव वर्ष पर जो रौनक मुंबई में देखने को मिलती है, उसका दिल्ली में अभाव रहता है। यहां इनकी गतिविधियों का केन्द्र बहादुरशाह जफर मार्ग स्थित पारसी अंजुमन ही है।
कश्मीरी गेट वाले नोवी
खेल कमेंटेटर नोवी कपाड़िया दिल्ली के मूल पारसी समाज से संबंध रखते हैं। वे खालसा कालेज में अंग्रेजी पढ़ाते हैं। चोटी के स्पोर्ट्स राइटर भी हैं। दिल्ली में एक दौर कश्मीरी गेट और मोरी गेट में दर्जनों पारसी परिवार रहा करते थे।कश्मीरी गेट-मोरी गेट से निकलकर कुछ पारसी परिवार डिफेंस कालोनी में भी रहने लगे। अब भी डिफेंस कालोनी में 5-7 पारसी परिवार रहते हैं। कुछ पारसी परिवार गुड़गांव में भी शिफ्ट कर गए।दिल्ली के पारसी हिन्दी ही बोलते है अपने निजी जीवन में। हालांकि सबका मूल स्थान तो गुजरात ही है।
1869 से दिल्ली में
दिल्ली में कब से हैं पारसी? इस सवाल का जवाब मिलता है इंडिया गेट के करीब पृथ्वीराज रोड पर स्थित पारसी कब्रिस्तान में जाकर। वहां पर एक पत्थर पर लिखा है कि सबसे पहले पारसी दिल्ली में 1869 में आए। दिल्ली के प्रमुख पारसियों में दादी मिस्त्री रहे हैं। वे लंबे समय तक मिनोरिटी कमिशन के मेंबर रहे। उनका परिवार करीब 50 सालों से दिल्ली में बसा हुआ है। वो भी मुंबई से ही है। पर दिल्ली आ गए थे।

दिल्ली का पंजाबी सौदागरान समाज

विवेक शुक्ला

भारत और पाकिस्तान का दिल्ली पंजाबी सौदागरान समाज एक-दूसरे से निकट से जुड़ा है। इसका एक बड़ा हिस्सा 1947 में पाकिस्तान चला गया था। नए देश में जाकर भी इन्होंने अपनी विशिष्ट पहचान को कायम रखा।
ये सच्चे कारोबारी हैं, नौकरी नहीं करते। सरहद पार भी ये कारोबार करने लगे। इन्होंने कराची में अपने रहने के लिए दिल्ली कॉलोनी तथा अति संभ्रांत क्लिफ्टन एरिया में दिल्ली पंजाबी सौदागरान सोसायटी और दिल्ली मर्केंटाइल सोसायटी स्थापित की। इनमें पंजाबी सौदागरान परिवारों की अगली पीढ़ियां आबाद हैं। इधर आपको मयूर विहार मेट्रो स्टेशन के पास भी इसी बिरादरी की एक शानदार हाउसिंग सोसायटी मिलेगी। नाम है पंजाबी सौदागर सोसायटी। इसमें सिर्फ पंजाबी मुसलमानों को ही मेंबरशिप मिली थी। दिल्ली से करीब 1100 किलोमीटर दूर कराची में 70 साल रहने के बाद भी ये दिल्लीवाले ही बने हुए हैं। इन्होंने कराची के बर्न रोड पर दिल्ली पंजाबी सौदागरान अस्पताल भी बनाया।
इधर राजधानी में कनॉट प्लेस के मरीना होटेल का स्वामित्व भी एक पंजाबी सौदागरान परिवार के पास है। दिल्ली कॉलेज की बात करें तो वह दिल्ली में ही नहीं, पाकिस्तान के सिंध प्रांत की राजधानी कराची में भी सिर उठाए खड़ा है। दिल्लीवाले जब यहां से वहां गए तो सभी ने मिलकर उसे वहां पर स्थापित किया था। वैसे हमारे अपने दिल्ली कॉलेज का नाम अब दिल्ली जाकिर हुसैन कॉलेज हो चुका है। दिल्ली पंजाबी सौदागरान समाज का पाकिस्तान के फार्मा सेक्टर पर पूरा नियंत्रण है। कई नामी फार्मा कंपनियां इन्हीं की हैं। पर कराची के सबसे प्रसिद्ध और सम्मानित दिल्लीवाले के रूप में हकीम अब्दुल सईद का ही नाम लिया जाएगा। वहां उन्होंने हमदर्द लैबरेटरीज को खड़ा किया। उनके अग्रज हकीम अब्दुल हमीद साहब भारत में इस समूह को देखते रहे। हकीम सईद का बचपन और जवानी पुरानी दिल्ली की गलियों में गुजरा था। वे दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़े और बाद में सिंध प्रांत के गवर्नर भी रहे।