दिल्ली के जायके

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कूल एंड कलरफुल स्ट्रीट फूड

अमिताभ

स्ट्रीट फूड भी कम रंगीन नहीं हैं। स्वाद के मल्टी कलर से सराबोर स्ट्रीट फूड के कहीं-कहीं रंग भी देखने लायक हैं और चखने लायक तो खैर हैं ही। कूल हरे रंग का घीया लौंज है, तो चटक गोल्डन जलेबा और मल्टी कलर चुस्की भी। आज ऐसे ही रंगारंग स्ट्रीट फूड चखा रहे हैं -
1. मल्टी कलर चुस्की/शिकारा लवली चुस्की
@इंडिया गेट: रोज, खस, ऑरेंज वगैरह मल्टी कलर और रंगारंग फ्लेवर्स की चुस्कियां चूसने का मज़ा इंडिया गेट से बेहतर और कहां मिलेगा। इंडिया गेट के नजदीक मान सिंह रोड पर मस्जिद के बगल में फुटपाथ पर ‘शिकारा लवली चुस्की’ के जगमग स्टॉल पर हर रात साढ़े 7 से डेढ़ बजे तक रौनक गुलजार रहती है। कोई काला खट्टा का रसिया है, तो कोई खट्टा-मीठा का। गुलाबी, हरा और संतरी रंग के फ्लेवर्स रोज, खस और ऑरेंज भी हाजिर है। बगैर रंग की इलायची फ्लेवर की चुस्की का स्वाद हू-ब-हू शिकंजी की माफिक है। काला खट्टा और खट्टा मीठा चुस्कियों पर नींबू और मसाले का इतना जोरदार रंग चढ़ता है कि यही सबसे ज्यादा पसंद की जाती है। काला नमक, जीरा वगैरह से बना मसाला भी खास है। काला खट्टा फ्लेवर में शुगर फ्री भी सर्व की जाती है। बड़ी खासियत है कि बर्फ आर ओ फिल्टर पानी से खुद ही जमाते हैं। ओनर पप्पू चौधरी ने अस्सी के दशक के शुरुआती कई साल के दौरान मुम्बई के चौपाटी पर काला खट्टा चुस्की क्या खाई? उन्होंने 1986 में इंडिया गेट पर अपने भाई असद खान सलाही के साथ मिलजुल कर दिल्लीवालों को खिलानी शुरू कर दी। पहले नाम रखा ‘शाही गोल्डन चुस्की’, लेकिन जल्द ही शिकारा की ठंडी बयार से प्रेरित हो कर ‘शिकारा लवली चुस्की’ हो गया। उनकी पत्नी हुसना खान भी हाथ बंटाती है। पप्पू चौधरी अक्सर यूं गा-गा कर बुलाते भी हैं- ‘आई चुस्की.. ये लवली चुस्की.. एक खट्टी-मीठी चुस्की, दिल बहार चुस्की एंड फाइन चुस्की..पहले स्कूल में खाई थी, अब इंडिया गेट पर खाई..।’
2. तरबूज का शरबत/ नवाब जूस सेंटर
@मटिया महल: गुलाबी नारियल बर्फी और गुलाबी बंगाली रसगुल्ले तो पूरा साल खाते हैं, लेकिन ठंडा गुलाबी तरबूज, रूह आफजा और दूध का मस्त शरबत आजकल गर्मियों की नायाब सौगात है। मिलता ज़रा कम ही है। पिलाने का श्रेय जाता है जामा मस्जिद के सामने मटिया महल मेन बाज़ार में ‘असलम चिकन’ की दुकान के नजदीक रेहड़ी पर। छतरी ताने रेहड़ी पर लिखा है ‘नवाब कुरैशी तरबूज का जूस’ और स्पेशल है तरबूज, रूहआफजा और दूध का शरबत। शरबत खास है, इसलिए नाम भी खास है। सामने बनाते हैं- पतीले में अमूल दूध, चाश्नी और रूहआफजा को बर्फ की सिल्ली से ठंडा करते हैं। फिर तरबूज को बारीक-बारीक काट कर डाल देते हैं। धीरे-धीरे शरबत ठंडा होता है और तरबूज का सत दूध में घुल-घुलकर तासीर और ठंडी करता रहता है। पीते-पीते मुंह में तरबूज के टुकड़े आते हैं। तरबूज के आम जूसों से हटकर, प्यार मुहब्बत मज़ा पेश करने का श्रेय दो भाइयों नवाब कुरैशी और मुहम्मद शहादत को जाता है। 2007 से रोजाना दोपहर 12 से रात 12 बजे तक प्यार मुहब्बत मज़ा के दीवाने उमड़ते रहते हैं। सीजनल है, सो सारा साल तो नहीं, मार्च से अक्टूबर के बीच ही बनता-बिकता है।
3. घीया लौज/श्याम स्वीट्स
@चावड़ी बाज़ार: गर्मियों के कूल कलर हरे रंग की घीया लौंज खाई है क्या? नहीं, तो जरूर खाने चलिए ‘श्याम स्वीट्स’ पर। यहां घीया बर्फी को घीया लौंज कहा जाता है। दूध, इलायची, गुलाबी जल, मावा और कद्दूकस घीया को कढ़ाही में 3 घंटे तक काढ़-काढ़ कर ट्रेª में जमाते हैं। फिर चांदी का वरक लगा, पीसों में काट दिया जाता है। इनके रंग को देखकर ही दिल खुश हो जाता है। हल्का मीठा है। मुंह में घीया और खोया तैरते हैं। टेस्टी इतनी है कि घीया न खाने वाले भी इसे चाव से खाने लगते हैं। एक और खास हरी-हरी मिठाई है-स्पेशल पान पेठा। देखने में पान की तरह लगता है। पेठे को छील कर चीनी में पकाते हैं, फिर चाश्नी में डुबो देते हैं। इसमें गुलकंद, शहद, गुलाब पंखुडी, सौंफ, ड्राई फ्रूट्स वगैरह की स्टफिंग का रोल बना कर पेश करते हैं। घीया लौंज का जलवा मार्च से अक्टूबर तक ही है। बाकी सारा साल मटर कचौड़ी, बेड़मी-आलू और नागौरी हलवा समेत मीठी-नमकीन हर आइटम की तारीफ है। मटर कचौड़ी से ही मशहूर ‘श्याम स्वीट्स’ हलवाई शॉप 1910 से चावड़ी बाज़ार के चौक बरशाह बुल्ला पर धूम मचाए हुए है। शुरुआत की आनन्दी मल ने, फिर उनके बेटे बाबू राम, पोते मुकुट बिहारी लाल, पड़पोते केदार नाथ से होते हुए आज पड़पड़ पोते संजय और अजय अग्रवाल के साथ छठी पीढ़ी के भरत अग्रवाल अपने पुश्तैनी स्वाद को कायम रखने में जुटे हैं। हर रोज सुबह 9 से रात 9 बजे तक कभी भी खाने जा सकते हैं। अगर भीड़भाड़ में जाने से कतराते हैं, तो दरियागंज की दयानंद मार्ग के नजदीक मद्रास हाउस स्थित ‘श्याम स्वीट्स’ का रुख का सकते हैं।

दिल्ली में जायके के लिए हिट ये फूड शॉप्स

दिल्ली में ऐसी कई खाने की जगह हैं, जहां का स्वाद सबकी जुबान पर चढ़ा हुआ है। उनमें से कुछ ऐसी भी हैं, जिन्होंने अपना सफर एक छोटी सी दुकान से शुरू किया और आज उनकी शॉप्स पर लंबी लाइनें लगी रहती हैं। ऐसे में आपको यहां तो एक बार आना ही चाहिए:
परांठों का स्वाद बिंदास
मूलचंद परांठा नाम के साउथ दिल्ली के ईटिंग आउटलेट के तवा परांठों की सारी दिल्ली में धूम है। रेहड़ी से दुकान में पहुंचे अभी 3 साल ही हुए हैं। परांठों का जलवा मेट्रो स्टेशन के सामने फुटपाथ पर तिरपाल लगाकर रेहड़ी से शुरू हुआ था। आज मूलचंद मेट्रो स्टेशन के नीचे दुकान है। यहां मिट्टी के कसौड़े में खीर और मिट्टी के कुल्हड़ में लस्सी भी मिलती है। 20 से ज्यादा वेज स्टफिंग के तवा परांठे हैं, जिसमें आलू, गोभी, प्याज, पनीर, दाल-प्याज, सोयाबीन वड़ी, पनीर-प्याज वगैरह। नॉन वेज में भी 9 वैरायटी के परांठे भी जैसे कि एग परांठा, मटन परांठा, चिकन परांठा वगैरह।
पता : मूलचंद

वेज थाली है हिट
ओम जी ओम ढाबा 1985 से कमाल के पकवान से शोहरत हासिल कर रहा है। इससे पहले 1982 से मालिक ओम प्रकाश अरोड़ा और उनकी पत्नी आशा रानी अरोड़ा ने यहीं रेहड़ी से घर जैसी देसी घी की सब्जियों और तवा रोटी से स्वाद की शुरुआत की। महज 3 साल में रेहड़ी दुकान में तब्दील हो गई। यहां की वेज थाली हिट है। शाही पनीर, दाल मक्खनी, दाल तड़का, कढ़ी-पकौड़ा, कटहल मसाला, मलाई चाप वगैरह 15-20 सब्जियां हाजिर हैं। पनीर टिक्का, अफगानी चाप टिक्का, वेज सींक कबाब वगैरह का ग्रिल लोगों को खूब लुभाता है।
पता : करोलबाग

कचौड़ी लाजवाब
रेहड़ी पर कोयले की भट्टी पर खौलती कढ़ाही से निकलती गर्मागर्म स्वादिष्ट कचौड़ी ने 2 साल पहले ही दुकान तक का सफर किया है। बर्फखाना से घंटाघर जाती सड़क पर छेदी लाल कचौड़ी वाले ने छतरी ताने रेहड़ी से कचौड़ियों का सफर शुरू किया। आज छेदी लाल का एक बेटा लक्ष्मी चंद और उनके पोते लवली प्रजापति और आकाश प्रजापति दुकान से जायकेदार शान बरकरार रखे हुए हैं। यहां कचौड़ियां आज भी कोयले की भट्टी पर ही तलते हैं। उड़द दाल की पिट्ठी भरी कचौड़ियों के साथ हींग, काली मिर्च, गर्म मसाले वगैरह की आलू सब्जी और मैथी की लौंज तो ग्रेट है।
पता : घंटाघर

स्पेशल आइस्क्रीम फालूदा
डीयू नॉर्थ कैम्पस से सटे मल्का गंज चौक पर 1960 के आसपास रेहड़ी से सरदार हरा सिंह ने बर्फ के ठंडे- ठंडे गोले खिलाने शुरू किए। 1995 आते-आते उन्होंने बेटे सरदार सतनाम सिंह के साथ मिलकर रोहिणी में रेहड़ी लगाने लगे। अब बीते 5-6 साल से इनका जायकेदार सफर दुकान तक पहुंच गया है। दुकान पर आइटम्स के छोटे-बड़े कई बोर्ड टंगे हैं। हालांकि दुकान के नाम का बोर्ड नहीं है लेकिन ‘सरदार जी चुस्की वाले’ के तौर पर मशहूर हैं। स्पेशल आइसक्रीम फलूदा भी खास है। कप में वनीला, स्ट्रॉबरी, मैंगो और काजू किशमिश आइसक्रीम का एक-एक स्कूप डालकर ऊपर फलूदा और फिर ड्राई फ्रूट्स, जेली और रूहअफजा की टॉपिंग की जाती है।
पता : रोहिणी

दिल्ली की सर्दी और खाने का लुत्फ यहां

मौसम करवट ले रहा है। ऐसे में, कभी ठंडा तो कभी गर्म खाना-पीना अच्छा लगता है। गर्म में चाय बेस्ट है। उसके साथ गर्म समोसे, ब्रेड पकौड़े या वड़ा पाव हो जाए, तो क्या कहने। ठंडे में आइसक्रीम शेक पिएं या खाएं चटपटे पानी भरे गोलगप्पे। गर्म और ठंडा खाने-पीने के लिए ये ठिकाने हैं बिंदास:

हाजमा पानी है लाजवाब
दिल्ली चटाेरों की है, ऐसे में गोल गप्पे की बात न हाे तो ये नाइंसाफी ही होगी। श्री भगवती गोल गप्पे का स्वाद इनके ग्राहकों को यहां आने पर मजबूर कर देता है। यहां 1 या 2 नहीं, पूरे 6 फ्लेवर का पानी मिलता है। पानी की वैरायटी में दर्ज है- लहसुन, पुदीना, हींग, जीरा, जलजीरा और हाजमा। हाजमा पानी सबसे ज्यादा पसंद किया जाता है। गोल गप्पे केवल आटे के हैं। उबले आलू, छोले, धनिया, काला नमक वगैरह को मैश कर एक पतीले में भर कर रखते हैं। पानी की धार सीधे गोल गप्पों को खुद ही भर देती है। दो दोस्तों लक्ष्मण कुमार और विजय कुमार ने बीते 3 साल से लखनऊ के तौर-तरीके से गोल-गप्पे क्या खिलाने शुरू किए, बिना छुट्टी रोज शाम 4 से रात 10 बजे तक यहां रौनक रहती है।
पता : पहाड़गंज

शौक से पीजिए रबड़ी शेक
ठंड का मौसम हो और आइसक्रीम की बात न हो, ये हो ही नहीं सकता। अगर इस हल्की ठंड में आइसक्रीम का स्वाद लेना चाहते हैं, तो सांवरिया मिक्स आइसक्रीम चले आएं। स्टील के बॉक्स में भरा फालूदा, आइसक्रीम, रबड़ी और बादाम शेक को देखकर जी ललचाने लगता है। ऑर्डर मुताबिक यहां सभी को मिक्स करके नये फ्लेवर की आइसक्रीम खाने को मिलती है। बादाम और रबड़ी 2 फ्लेवर्स के शेक सबको काफी पसंद आते हैं। इसके अलावा होम मेड आइसक्रीम की भी 4 वैरायटी हैं- राजभोग, रोज, चॉकलेट और काजू किशमिश। इस पर जिया सीड्स (सबजा), रोज या जाफरान सिरप की टॉपिंग टेस्ट को दोगुना कर देती है।
पता : कमला नगर

कटिंग चाय पीएं और खो जाएं
चाय का लुत्फ तो हर गली-नुक्कड़ में ले सकते हैं, लेकिन अलग अंदाज में चाय की चुस्कियां भरते-भरते स्नेक्स खाने का जी करे, तो चलिए ‘चाय चखना’ पर। यहां आपको चाय की वैरायटी में फुल चाय, कटिंग चाय, ग्रीन चाय और लेमन चाय हैं। आपको यहां कॉफी भी पीने को मिलेगी। चाय के साथ खाने को चाय-भुजिया, चाय-मट्ठी, चाय-समोसा, चाय-रस्क, चाय-वेज सैंडविच, चाय-बन मस्का और चाय-वेज चीज सैंडविच लाजवाब हैं। यहां का वड़ा पाव भी काफी मशहूर है। यहां वड़ा पाव का पाव मुम्बई से और दाबेली के मसाले कच्छ से मंगवाए जाते हैं। 1990 से कोलकाता की बी के मार्केट में ‘चंद्र विहार’ नाम के ढाबे से साग कचौड़ी, डोसा वगैरह खिलाकर धूम मचाने के बाद प्रकाश चंद पटावरी ने अपने बेटे रितेश पटावरी के साथ नए अंदाज से जलवा बिखेरा है।
पता : करोलबाग

समोसा खाएं, खुश हो जाएं
इस हल्की ठंड में मस्त चाय की चुस्कियाें के साथ अगर खौलती कढ़ाही से निकलते गर्मागर्म समोसे और ब्रेड पकौड़े का लुत्फ लेना चाहते हैं, तो आप मेहता रिफ्रेशमेंट कॉर्नर पर बिना सोचे चले आइए। सुबह 8 से दोपहर डेढ़ बजे और फिर साढ़े 3 से रात साढ़े 8 बजे तक चाय और समोसे, ब्रेड पकौड़े का सिलसिला चलता रहता है। एक कढ़ाही समोसों की निकलती है, तो दूसरी ब्रेड पकौड़ों की। समोसे और ब्रेड पकौड़े दोनों में आलू की स्टफिंग है। तिकोनी मट्ठी भी मिलती है। समोसे-ब्रेड पकौड़े संग मीठी चटनी सर्व की जाती है। 1967 में अशोक कुमार मेहता ने अपनी पत्नी ललिता मेहता के साथ मिलजुल कर शुरुआत की। आज अशोक बेशक बुजुर्ग हो गए हैं लेकिन स्वाद जस का तस है।
पता : वेस्ट पटेल नगर

दिल्ली में म्हारे राजस्थान का स्वाद लेने यहां पधारो

वैसा दिल्ली में हर तरह और हर राज्य का खाना आसानी से मिल जाता है, लेकिन कुछ लोग किसी खास स्टेट के खाने लिए दिल्ली में फेमस जगहों को ढूंढते हैं। चाहे पंजाबी हो या गुजरात आपको खाने की हर वैरायटी राजधानी में आराम से मिल जाएगी। लेकिन अगर आप राजस्थानी थाली और वहां के दूसरे फूड्स के शौकीन हैं, तो इन जगहों को कभी भूल नहीं पाएंगे।

राजस्थानी थाली में वैरायटी खूब
इतनी बड़ी दिल्ली में अपनी रुचि से राजस्थानी खाना चाहते हैं, ताे सुरुचि आपके लिए पसंदीदा जगह बन सकती है। यह एक ऐसा रेस्तरा है, जहां आपको राजस्थान का ट्रैडीशनल खाना खाने को मिल जाएगा। यहां के खाने की महक आपको राजस्थान की याद दिला देगी। यहां की राजस्थानी थाली के क्या कहने। इतनी वैरायटी में आप एक-एक करके भी अगर सब ट्राई करते हैं, तो भी आपका मन करेगा बस खाते जाओ।
पता : अजमल खां रोड, करोलबाग

यहां का स्वाद है खानदानी
अगर म्हारे राजस्थान का स्वाद खानदानी हो, तो फिर आपको किसी और के बारे में सोचने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। अाप भी अगर ऐसा ही स्वाद लेना चाहते हैं, तो खानदानी राजधानी आएं और राजस्थान के फ्लेवर को टेस्ट करें। यहां आपको राजस्थान की नई-नई डिश चखने को मिलेंगी। यहां आपको दो तरह की थाली मिलेंगी। राजस्थान के खाने की वैरायटी से सजी ये थाली देखते ही आपके मुंह में पानी आ जाएगा। यहां आपको राजस्थान का कल्चर साफ नजर आएगा।
पता : कनॉट प्लेस

हर दिन कुछ खास है
राजस्थान तो वैसे भी अपने विभिन्न रंगों के लिए जाना जाता है। लेकिन अगर वो रंग खाने पर चढ़ जाए, तो फिर कुछ और नजर नहीं आता है। आप राजस्थान के ऐसे ही कलर देखने के लिए कठपुतली आ सकते हैं, जहां एंट्री करते ही आपको दिवारों पर राजस्थान के रंग दिखने लगेंगे। इसके साथ ही बड़ी सी थाली में रोटी, पूरी, चावल और कटोरियों में दाल और कढ़ी से लेकर कई तरह की सब्जी और मीठा आपके जी ललचाने के लिए काफी है। यहां के राजस्थानी स्वाद की वजह से लोग यहां बार-बार आने से खुद को रोक नहीं पाते हैं। आपको यहां कुछ खास दिनों पर थाली में ढोकला, दाल कचौड़ी और कल्मी वड़ा भी खाने को मिलता है।
पता : डिफेंस कॉलोनी

कढ़ी-चावल खाएंगे तो सब भूल जाएंगे
राजस्थान की संस्कृति की झलक के साथ अगर आपको वहां का स्वाद चखना है, तो पंचवटी गौरव में आना तो बनता है। यहां आपको राजस्थानी खाने के साथ आसपास का माहौल भी राजस्थान में होने का अहसास कराएगा। यहां राइस के साथ कढ़ी का स्वाद आपको ताउम्र याद रहेगा। यहां दिन के हिसाब से आपको खाने की वैरायटी परोसी जाती हैं। अगर राजस्थान की खिचड़ी खाने का मन है, तो इससे अच्छी जगह आपके लिए कोई हो ही नहीं सकती।
पता : साइबर सिटी, गुरुग्राम

अनदेखी दिल्लीो

देश की आनबान और शान के प्रतीक जिस लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री हर साल 15 अगस्त के दिन झंडा फहराकर देश को संबोधित करते हैं उसकी नीव में पहली ईंट दिल्ली के ही एक गांव के बुजुर्गों ने रखी थी। दिल्ली के सबसे पुराने गांवों में शुमार यह गांव है पालम। इस ऐतिहासिक गांव से जुड़ी हैं तमाम ऐसी कहानियां जो कम ही लोग जानते हैं। पालम गांव की चौदराहट से जुड़े किशनचंद सोलंकी बताते है कि जब सोलहवीं शताब्दी में मुगल बादशाह ने लाल किले की नींव रखी थी तो पालम गांव के पांच बुजुर्गों को सम्मान के तौर पर बुलाया था। इन बुजुर्गों ने ही लाल किले की नींव में ईंट रखी थी। क्योंकि गांव को 360 गांव की चौदराहट मिली हुई थी। गांव के ही कुछ और लोगों का यह भी कहना है कि पालम गांव की मिट्टी में काफी शक्ति है, इसलिए भी बुजुर्गों को बुलाया गया था, ताकि किले की नींव मजबूत रहे। उस समय यमुना नदी बिल्कुल लाल किले के साथ से होकर गुजरती थी। इस भी लोक कहानी है कि जब लाल किले की नींव रखी जाती थी तो नींव बह जाती थी, पालम गांव में दादा देव मंदिर परिसर में एक तालाब है जहां आज भी लोग मिट्टी छूते हैं। क्योंकि इस मिट्टी में बड़ी ताकत है इसलिए ये बुजुर्ग इस मिट्टी को लेकर गए थे और ईंट इसी मिट्टी से चिनी गई थी।

बाबर पालम गांव में आकर ठहरा था
भारत में मुगल साम्राज्य की नींव रखने वाला शासक बाबर पालम गांव में आकर ठहरा था। किशनचंद बताते हैं कि जब बाबर दिल्ली आया तो पालम गांव में ही आकर ठहरा था, ऐसा भी सुनने में आता है कि उसने पालम को अपनी राजधानी बनाया था। बाद में अपनी राजधानी यहां से बदली। आज भी गांव में बाबर के समय की एक मस्जिद है, साथ ही उसके समय बनायी गयी बावड़ी है। इसलिए भी इस गांव को बहुत ज्यादा ऐतिहासिक महत्व है।

क्या है पालम गांव का इतिहास
पालम गांव का 1200 साल के आसपास का है। श्री दादा देव मंदिर प्रबंधन समिति के अध्यक्ष बलजीत सिंह सोलंकी बताते हें कि यह गांव सिर्फ ऐतिहासिक ही नहीं है बल्कि आस्था से भी जुड़ा हुआ है। हमारे पूर्वज टोंक जिले के टोडा रॉय सिंह गांव से आए थे। इसके पीछे भी एक कहानी है। टोडा रॉय सिंह में दादा देव महाराज रहते थे। वे सारा दिन एक सिला पर बैठकर ध्यान में विलीन रहते थे। ऐसा भी लोक कहानी है कि उनके तप से प्रसन्न होकर भगवान ने उन्हें दिव्य शक्तियां प्रदान कीं। इन दिव्य शक्तियों के जरिए वे गांव वालों का भला करते थे। कुछ समय बाद वे सिला पर बैठे हुए ही ब्रह्मलीन हो गए। कुछ अरसे बाद इस गांव में अकाल पड़ गया। गांव वालों ने गांव छोड़कर जाने का निर्णय लिया, लेकिन वह भारी सिला वे बैलगाड़ी पर रखकर वहां से चल दिए। रास्ते में उन्हें भविष्यवाणी हुई की जहां भी ये सिला गिर जाए आप सभी वहां पर ही बस जाना। ये लोग चलते चलते पालम गांव आ गए। यहां आकर यह सिला गिर गई। लोगों ने वहां ही रहना शुरू कर दिया। आज जहां सिला है वहां पर श्री दादा देव जी का एक भव्य मंदिर है। लोग यहां दूर दूर से मन्नतें मांगने आते हैं और उनकी मुरादें पूरी होती हैं।

पालम गांव के नाम पर ही पड़ा था पालम एयरपोर्ट का नाम
पालम गांव को बावनी भी बोला जाता है, क्योंकि पालम गांव की जमीन 52 गांवों से लगती है इसलिए इसे बावनी कहा जाता है। बलजीत सिंह सोलंकी बताते हैं कि दिल्ली एयरपोर्ट के लिए इस गांव की 1200 बीघा जमीन गयी है इसलिए गांव के नाम पर ही इस एयरपोर्ट का नाम पड़ा। इतना ही नहीं इस गांव से 12 गांव निकले हैं। ये गांव हैं पालम, बागडौला, शाहबाद मौहम्मदपुर, मटियाला, बिंदापुर, असालतपुर, डाबड़ी, नसीरपुर, गोयला खुर्द, नांगल राया, पूठकलां। ये सभी गांव दादा देव महाराज को आराघ्य देव मानते हैं।

हर साल होता है दंगल और लगता है मेला दादा देव मंदिर में वैसे तो हर साल दशहरा पर मेला लगता है जिसमें लाखों लोग आते हैं। इसके अलावा हर साल तीज पर एक दंगल कराया जाता है। इस दंगल में जीतने वाले पहलवान को एक लाख का ईनाम दिया जाता है। दंगल में दिल्ली, हरियाणा, यूपी, राजस्थान सहित कई राज्यों से पहलवान आते हैं।

कोटला फिरोजशाह की मस्जिद और तैमूर की इबादत

1206 में कुतबुद्दीन ऐबक के दिल्ली का सुल्तान बनने से इसके इतिहास में नया चैप्टर जुड़ गया। इससे पहले दिल्ली पर राजपूत राजा का शासन था। मुगलों के आने तक करीब 320 साल तक 5 वंशों ने दिल्ली पर शासन किया। इन्हीं में से एक तुगलक वंश (1321-1414) के 11 शासकों ने करीब 100 साल तक राज चलाया।
तुगलक वंश के तीसरे शासक फिरोजशाह तुगलक (1351-1388) ने दिल्ली में एक नया शहर बसाया। इसका नाम था-फिरोजाबाद। अभी जो कोटला फिरोजशाह है यह उसके दुर्ग का काम करता था। इसे कुश्के-फिरोज यानी फिरोज का महल कहा जाता था। ऐसा माना जाता है कि फिरोजाबाद, हौज खास से पीर गायब (हिंदूराव हॉस्पटिल तक) तक फैला हुआ था। मगर, इतनी लंबी दीवार के होने की निशानी नहीं मिली है। इतिहासकार फिरोज़ाबाद को दिल्ली का पांचवां शहर मानते हैं।
फिलहाल इस दुर्ग के अंदर बची कुछ इमारतों में एक मस्जिद है। इसके साथ ही इसमें अशोक स्तंभ है, जो एक पिरामिड जैसी इमारत पर खड़ा है। किले में एक गोलाकार बावली भी है। इतिहासकारों का मानना है कि कोटला फिरोजशाह में कई महल थे। हालांकि, इनमें से किसी की पहचान नहीं हो पाई है। तीन-चार इमारतों को छोड़ दें तो अंदर कुछ बचा नहीं है। केवल इमारतों के अवशेष हैं।
किले में तीन मंजिला पिरामिडीय इमारत है। यह पत्थरों से बनाई गई है। इसकी हर मंजिल की ऊंचाई कम होती गई है। इमारत की छत पर फिरोजशाह ने अंबाला के टोपरा से स्तंभ लाकर लगवाया था। इस पर अशोक की राजाज्ञा अंकित हैं। यह ब्राह्मी लिपि में है। मौर्य शासक अशोक के इस स्तंभ की ऊंचाई करीब 13 मीटर है। इसे सबसे पहले 1837 में जेम्स प्रिंसेप ने पढ़ा था। ऐसा ही दूसरा स्तंभ फिरोजशाह ने मेरठ के आसपास से मंगवाया था। उसे हिंदूराव अस्पताल के पास लगवाया। इतिहासकारों का कहना है कि इन दोनों स्तंभों को नदी के जरिए लाया गया था।
कोटला फिरोजशाह के अंदर की मस्जिद ऊंचाई वाले आधार पर खड़ी है। इसका नाम जामी मस्जिद है। मस्जिद की एक दीवार ही बची है। तुगलक काल में यह सबसे बड़ी मस्जिद थी। तैमूर ने 1398 में इस मस्जिद में इबादत की थी। यह मस्जिद तैमूर को इतनी अच्छी लगी कि इसकी जैसी ही मस्जिद समरकंद में बनवाई। इतिहासकार मानते हैं कि मस्जिद रॉयल महिलाओं के लिए बनवाई गई थी। किले में मौजूद बावली में आज भी पानी है। इसका इस्तेमाल नहाने और गर्मी से बचने के लिए किया जाता था।
फिरोजशाह तुगलक को इतिहास, शिकार, सिंचाई और वास्तुकला में काफी रुचि थी। उन्होंने कई शिकारगाह जैसे- मालचा महल, भूली भटियारी का महल और पीर गायब बनवाए। कई शहरों की बुनियाद डाली। कुतुब मीनार, सूरज कुंड की मरम्मत करवाई। हौज खास के तालाब की भी मरम्मत फिरोजशाह ने करवाई थी। वहीं उनका मकबरा भी है। फिरोजशाह के शासन में दिल्ली में कई मस्जिदें भी बनाई गईं। इनमें खिड़की मस्जिद और बेगमपुरी मस्जिद प्रमुख हैं।
लोगों का ऐसा विश्वास है कि कोटला फिरोजशाह में जिन्न रहते हैं और उनसे जो भी मांगा जाए वह मिल जाता है। हर गुरुवार को किले बड़ी संख्या में लोग आते हैं। वे अगरबत्ती, दीये, दूध और कई तरह के अनाज लेकर आते हैं। हालांकि, इस किले के संरक्षण की जिम्मेदारी निभा रहा आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया इसे लोगों का अन्धविश्वास मानता है और लोगों को ऐतिहासिक इमारत को नुकसान न पहुंचाने की गुजारिश भी करता रहा है।उसका मानना है कि लोगों के अन्धविश्वास की वजह से इमारत को बहुत ही नुकसान पहुंचता है। अगरबत्ती और दीये से इमारत गंदी होती है और अनाज फैलाने से चूहों का आतंक बढ़ जाता है। लोगों का यह अन्धविश्वास करीब 40-50 साल से इस ऐतिहासिक इमारत को खराब कर रहा है। काफी कोशिशों के बाद भी इसे पूरी तरह रोका नहीं जा सका है।

दिल्ली में मुरादाबाद की पहाड़ी

आप यह सुनकर चौंक जाएंगे कि दिल्ली में भी मुरादाबाद की पहाड़ी है। आप सोच रहें होंगे की आखिर मुरादाबाद का दिल्ली से क्या कनेक्शन हैं। दिल्ली में कहां है मुरादाबाद की पहाड़ी। इस पहाड़ी के बारे में बहुत कम लोग जानते हैं। इस पहाड़ी पर एक कई सौ साल पुरानी शाही मस्जिद है और एक दरगाह है। दरअसल दिल्ली की इस मुरादाबादी पहाड़ी से मुरादाबाद का कोई कनेक्शन नहीं है। मुरादाबाद की पहाड़ी वसंत विहार और मुनीरका के बीच में पड़ती है। वैसे इस पहाड़ी के चारो ओर का इलाका आर्मी क्षेत्र से घिरा हुआ है, यह एरिया दिल्ली कैंट के तहत ही आता है। कहा जाता है कि पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय इंदिरा गांधी ने यह जमीन वक्फ बोर्ड को दी थी।

क्यों पड़ा इस पहाड़ी का नाम मुरादाबादी
शाही मस्जिद मुरादाबाद पहाड़ी के इमाम मौलाना शाह रशीद बताते हैं कि एक बहुत ही पहुंचे हुए पीर हुए हैं उनका नाम था मुराद अली शाह। उनके बारे में ज्यादा तो जानकारी नहीं मिलती लेकिन कहा जाता है कि उनके नाम पर ही इस पूरी पहाड़ी का नाम मुरादाबाद की पहाड़ी पड़ा। आज भी मस्जिद के बायीं ओर के छोर पर उनकी एक मजार है।

हर गुरूवार को लोग आते हैं यहां मन्नतें मांगने
इमाम मौलाना शाह बताते हैं कि हर गुरूवार को इस मजार पर लोग दिया जलाने आते हैं। खास बात यह है कि इस बाजार पर अधिकतर गैर मुसलमान लोग ही मन्नतें मांगने आते हैं। लोगों का कहना है कि यहां आकर दिल को बहुत ही सकून मिलता है। यहां पर एक अलग तरह का रूहानी अहसास होता है। लोगों का कहना है कि वे जो मन्नते मांगते हैं उनकी मुराद भी पूरी हो जाती है। यह सिलसिला काफी सालों से चल रहा है।

कई सौ साल पुरानी है शाही मस्जिद मुरादाबाद पहाड़ी
इमाम मौलाना रशीद बताते हैं कि पिछले 50 साल से ज्यादा से यह मस्जिद आबाद है। इसमें रोज नमाज अता की जाती है। यह मस्जिद कितनी पुरानी है इसका अंदाजा तो नहीं है, लेकिन यह मस्जिद सैंकड़ों साल पुरानी है। आसपास रहने वाले कुछ लोगों का कहना है कि यह मस्जिद मुगल काल के आसपास की है। आज भी यह मस्जिद पड़ी अच्छी हालत में है। मस्जिद में बड़े बड़े दरवाजे हैं। दो गुंबद हैं जो इसकी भव्यता को बढ़ाते हैं। मस्जिद के सामने बड़ा सा चबूतरा है। सामने गार्डन है। जो इसे और भी सुंदर बनाता है।

यहां चलता है मदरसा
मस्जिद के अंदर ही एक मदरसा चलता है जहां पर बच्चें तालीम हासिल करते हैं। इमाम के मुताबिक करीब 200 के आसपास बच्चे इस समय यहां तालीम ले रहे हैं।

कैसे पहुंचें मुरादाबाद की पहाड़ी तक
मुरादाबाद की पहाड़ी के बारे में आसपास के लोग भी कम ही जानते हैं। वसंत विहार के पश्चिमी मार्ग पर आकर वसंत विहार क्लब के सामने से एक रास्ता गया है। यह रास्ता सीधे डीडीए के बायो डायवर्सिटी पार्क की ओर जाता है। इस पार्क के पहाड़ी वाले रास्ते से होकर ऊपर जाएंगे एक बड़ा सा लोहे का गेट दिखायी देगा। इस गेट से निकलकर जैसे ही अंदर जाएंगे तो लगेगा जैसे बहुत ही खूबसूरत जगह पर आ गए हैं। जहां बायीं ओर एक खूबसूरत सी मस्जिद नजर आएगी और दायीं ओर जंगल नजर आएगा। मस्जिद पहाड़ी पर बनी हुइ है। इसी पहाड़ी को मुरादाबाद की पहाड़ी कहते हैं।

हमारे मुल्तान, लाहौर, मियांवाली और रावलपिंडीी

नई दिल्ली- पुलवामा की दिल दहलाने वाली घटना का असर ये भी हुआ कि बैंगलुरु में मशहूर कराची बेकरी के स्टाफ ने कराची शब्द को कवर कर दिया ताकि दंगाई उस पर हल्ला ना बोल दें। अपनी दिल्ली में ये शायद नौबत कभी न आए। इधर तो पाकिस्तान के तमाम शहरों के नामों पर कॉलोनियों से लेकर स्कूलों के नाम हैं। कभी किसी को इस मसले पर कोई दिक्कत नहीं हुई है। आपको पहाड़गंज में मुल्तानी ढांडा मिलेगा, तो पश्चिम विहार में न्यू मुल्तान नगर। दिल्ली के पंजाबी समाज में निश्चित रूप से सबसे ज्यादा मुल्तानी ही होंगे। ये सरहद पार वाले पंजाब का एक जिला है। मुल्तान को मस्जिदों और मक़बरों का शहर भी माना जाता है। दिल्ली-मुल्तान का एक तरह से पुराना संबंध भी रहा है। शेर शाह सूरी (1486-1545) ने दिल्ली- मुल्तान के बीच व्यापार और यातायात को बेहतर करने के लिए एक राजमार्ग का निर्माण करवाया था। इसी मुल्तानी बिरादरी ने देश के बंटवारे के बाद दिल्ली में आने के बाद ओल्ड राजेन्द्र नगर में मुल्तान डीएवीस्कूल स्थापित किया। गौर करें कि ये अधिकतर शाकाहारी हैं। इनके घरों में मांस का सेवन लगभग निषेध है। मुल्तानियों का दावा है कि दिल्ली वालों को शाही पनीर और पनीर टिक्का उन्होंने ही खाना सिखाया। मुल्तानी परिवारों में पनीर टिक्का लगातार खाया-पकाया जाता है। मुल्तानी समाज प्रति वर्ष सावन का महीना आते ही अपने एक खास पर्व को मनाने में जुट जाता है। इसका नाम है मुल्तान जोत महोत्सव। ये सारे यहां बसे मुल्तानियों को जोड़ता है। मुल्तान जोत महोत्सव क्या है? अखिल भारतीय मुल्तान युवा संगठन के प्रधान डॉ.महेंद्र नागपाल ने बताया कि सन 1911 में मुल्तान शहर से जोत महोत्सव की शुरू हुई थी। ये पर्व उस मुल्तान जोत की याद में ही मनाया जाता है जब भगत रूपचन्द्र मुल्तान से जोत लेकर पैदल हरिद्वार आए थे।तब से लेकर आज तक जोत महोत्सव आपसी भाईचारे, एकता और समृद्धि के लिए आयोजित किया जाता है।
इसी तरह से पाकिस्तान के हिस्से वाले पंजाब का एक शहर मियांवाली भी है। वहां से ही पकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान बीती जुलाई में संसद के चुनाव में निर्वाचित हुए थे। मियांवाली जिला पंजाब और खैबर पख्तूनख्वा सूबे ( जिसे पहले ड़ेरा इस्माइल खान कहते थे) की सीमा पर पर बसा है। दिल्ली में मियांवाली बिरादरी में खासी एकता है। इसी समाज से आते हैं आकाशवाणी दिल्ली के पूर्व कार्यकारी प्रोड्यूसर आदर्श आजाद अरोड़ा। वे बताते हैं कि “अब भी सारी मियांवाली बिरादरी सुख-दुख में एक दूसरे के साथ ख़ड़ी होती है। हमें पाकिस्तान से भले ही कोई मतलब नहीं है, पर मियांवाली नाम हमें अपने पूर्वजों के शहर से भावनात्मक रूप से जरूर जोड़ता है।”
पश्चिम दिल्ली में पाकिस्तान के हिस्से वाले भेरा शहर से आए शऱणार्थियों ने भेरा एन्क्लेव बनाया था। ये सरगोधा जिले का छोटा सा शहर है। आपको न्यू राजेन्द्र नगर में डेरा इस्माइल खान हायर सेकेंडरी स्कूल मिलेगा। ये पेशावर से करीब 300 किलोमीटर की दूरी है। न्यू राजेन्द्र नगर में पेशावर और इसके आसपास के शहरों से आए शरणार्थी परिवारों की भरमार है। इस स्कूल ने अपनी स्थापना के 70 साल पूरे कर लिए हैं। दिल्ली में भी लाहौरिए काफी तादाद में हैं। इन्होंने लाहौर से कोई कॉलोनी तो नहीं बनाई पर आपको वसुंधरा एन्क्लेव में लाहौर अपार्टमेंट मिलेगा। करोल बाग के आर्य समाज रोड पर लाहौर मांटेसरी स्कूल भी है। अब चलते हैं निजामउद्दीन क्षेत्र में। इधर रेलवे स्टेशन के करीब क्वेटा डी.ए.वी स्कूल है। बलूचिस्तान की राजधानी है क्वेटा।
पाकिस्तान सेना का मुख्यालय रावलपिंडी में है। इसी रावलपिंडी नाम से पुरानी सब्जी मंडी में रावलपिंडी सनातन धर्म हायर सेकेंडरी स्कूल है। पर दिल्ली में झंग और बन्नू जैसे पाकिस्तान के हिस्से वाले शहरों के नामों पर कुछ नहीं है। इधर झंग वाले तो खूब हैं। हां, फरीदाबाद भरा हुआ है बन्नूवाला वालों से। सिंधी भी राजधानी में लाखों की संख्या में हैं। पर इन्होंने अपने पीछे छूटे किसी शहर के नाम पर यहां कोई कॉलोनी या विद्यालय नहीं स्थापित की। पर आपको लाजपत नगर में कराची बेकरी मिल जाएगी।
कराची में दिल्ली
देश के बंटवारे के बाद दिल्ली वाले कराची गए तो वे अपने साथ दिल्ली की यादें लेकर जाना नहीं भूले। इन्होंने कराची में अपने लिए दिल्ली कॉलोनी तथा अति संभ्रात क्लिफ्टन क्षेत्र में दिल्ली पंजाबी सौदागरान सोसायटी और दिल्ली मर्कन्टाइल हाउसिंग सोसायटी स्थापित की। दिल्ली से करीब 1100 किलोमीटर दूर कराची में ये 70 वर्षो के बाद भी दिल्ली वाले ही बने हुए हैं। सिंध प्रांत की राजधानी कराची में भी है दिल्ली कॉलेज। उसे वहां पर बसे सभी दिल्ली वालों ने मिलकर स्थापित किया था। दिल्ली में दिल्ली जाकिर हुसैन कॉलेज है। कराची में भी है हमदर्द लैबोरेटरीज। उसे हकीम सईद साहब ने स्थापित किया था। उनके अग्रज हकीम अब्दुल हमीद साहब भारत में इस समूह को देखते रहे हैं। हकीम सईद का बचपन और जवानी पुरानी दिल्ली की गलियों में गुजरी थी। वे सिंध के गवर्नर भी रहे। आज से करीब 25 साल पहले सईद साहब दिल्ली में अपने बड़े भाई के कौटलिय मार्ग के बंगले में इस लेखक से बात करते हुए कह रहे थे – “ अरे भाई, ये शहर तो मेरे दिलीमें बसता है। कराची जाऊं या कहीं और रहने लगूं, पर रात को अगर कभी घर का सपना आता है, तो उसमें अपने पुरानी दिल्ली का घर ही होता है।”