अनदेखी दिल्ली

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इस कुएं के नाम पर धौला कुआं का नाम पड़ा

वीरेंद्र वर्मा, नई दिल्ली।

जिस कुएं के नाम पर धौला कुआं का नाम पड़ा है, वह आज भी है। यह जितना पुराना और गहरा है, उतनी ही पुरानी और गहरी उसकी कहानी है। धौला का अर्थ सफेद होता है। इस कुएंसे सफेद पानी निकलता था, इसलिए इस कुएं का नाम धौला कुआं पड़ा। धौला कुआं पेट्रोल पंप और मौजूदा मेट्रो स्टेशन के बीच से एक रास्ता डीडीए के झील पार्क की ओर जाता है। जैसे ही डीडीए पार्क में एंट्री करते हैं, आपके बाएं हाथ की ओर पत्थरों सेबना एक कुआं नजर आएगा। कुएं पर आज भी पुरानी दीवारें हैं जिन पर से रस्सी के सहारे पानी निकाला जाता था। डीडीए ने सुरक्षा के लिहाज से अब इस कुएं पर लोहे का जाल डाल दिया है ताकि किसी अप्रिय घटना से बचा जा सके। कुआं पत्थरों को एक-दूसरे से जोड़कर बनाया गया है। इसकीगहराई का अनुमान लगाना मुश्किल है। लोग कहते हैं कि कुएं में अपने आप प्राकृतिक तरीके से पानी आता है। धौला कुआं के आसपास कई तरह क ा निर्माण होने के कारण अब इसकुएं का पानी सूख गया है। कुएं की तली में कुछ इस तरह के पत्थर हैं जिनसे कुएं का पानी सफेद हो जाता था। पहले स्वतंत्रता संग्राम का गवाह बात 1857 की है। कई पुराने बुजुर्ग बताते हैं कि यह कुआं पहले स्वतंत्रता संग्राम का भी गवाह बना था। इसी कुएं पर देश को आजाद कराने के लिए वीर सेनानियों ने शपथ ली थी।कहा जाता है कि हरियाणा, यूपी और दिल्ली से आए हजारों सेनानियों ने इस कुएं में नमक की बोरियां डाल दी थीं और कुएं के चारों ओर खड़े होकर शपथ ली थी कि मर जाएंगे, लेकिनअंग्रेजों के सामने झुकेंगे नहीं। 360 गांवों की पंचायत की ओर से उस समय अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर को भी संदेश भेजा गया था कि वे फिर से उन्हें देश का सुल्तानबनाएंगे। गांवों में आज भी लोटे में नमक डालने की परंपरा है। इससे व्यक्ति फिर समाज से बाहर नहीं जाता। इसीलिए कुएं में नमक डालकर शपथ ली गई थी। मुगल बादशाह भी आते थे। कहते हैं कि मुगल बादशाह भी जब पालम या राजस्थान और हरियाणा की ओर जाते थे, तो कुछ पल इसी कुएं के पास आराम करते थे। हालांकि यह कहींनहीं दिया गया है कि यह कुआं कितना पुराना है, लेकिन माना जाता है कि यह कुआं 300 साल से ज्यादा पुराना होगा। कुएं के अंदर पत्थर इस तरह लगाए गए हैं कि इसका पानी रिस नसके। खेती में भी काम आता था पानी लोग बताते हैं कि धौला कुआं के आसपास कुछ इलाकों में चने और गेहूं की खेती होती थी। बैलों को चलाकर चमड़े की बाल्टियों से कुएं का पानी निकाला जाता था और खेतों कीसिंचाई की जाती थी। अब यहां डीडीए का झील पार्क है। डीडीए के कर्मचारी बताते हैं कि करीब 7 साल पहले तक कुएं में मोटर लगाकर पानी निकाला जाता था। इस पानी का इस्तेमाल पार्क में किया जाताथा। पिछले 35 साल से वे यहां तैनात हैं। कुछ साल पहले यह कुआं सूख गया है। कुएं से सफेद पानी आता था।

रिज में सजती थीं कभी गीत संगीत की महफिलेंे

वीरेंद्र वर्मा, नई दिल्ली।

राजधानी के सेंट्रल रिज में घने जंगल के बीचएक ऐसा थियेटर है, जहां कभी गीत-संगीत की महफिलेंसजती थीं। नए-नए नाटकों से मनोरंजन होता था। यहांमहीनों रशियन सर्कस चलताथा। इसे देखने के लिए लोग-लोग दूर-दूर से आते थे। जादू के अनदेखे करतब दिखाए जातेथे। उन्हें देखकर लोग दांतों तले उंगलियां दबा लेते थे। ऐसीमहफिलें जमती थीं कि लोग उठनेका नाम नहीं लेते थे। कई दशकों का इतिहास समाए यह थियेटर आज वीरान पड़ाहै। इस थियेटर का नाम है रवींद्र रंगशाला। सेंट्रल रिज मेंधौला कुआं से करोलबाग की ओर जाने वाले रास्ते से यहां पहुंचा जासकता है। आसाराम बापू के आश्रम के सामनेही इसका मेन गेट है। यहां 5 जहाजनुमा बड़े पंखों का गेट है। इसी रास्ते से सीढि़यों के जरिए नीचे पहुंचा जासकता है। दूसरा रास्ताझंडेवालाना मेट्रो स्टेशन के पास हनुमान की मूर्ति के साथ बंग्गा लिंक के जरिए रिज मेंजाता है। यहीं पर भूली भटियारी का महल है। कुछ दूरी पर करीब 40 फुट की गहराई पर दो मंजिलाथियेटर नजरआएगा। थियेटर के चारों ओर जंगल है। यह इतना बड़ा है कि घने जंगल के अंदर भी इस ओपन थिएटर में 8 हजार लोग बैठ सकते हैं। जहां मंच पर कभी आर्टिस्ट जादूबिखेरते थे आज वहां मोर नाचते हैं। सीढि़यों परझाडि़यां उग आने से आपका पाला सांप और दूसरे जानवरों से पड़ सकता है। नेहरू ने बनवाया था थियेटर संगीत नाटक अकादमी के मुताबिक इस थियेटर को रबींद्रनाथ टैगोर के जन्मशताब्दी पर प्रधानमंत्री स्वर्गीयपंडित जवाहर लाल नेहरू की अध्यक्षता वाली कमेटी के निर्देशों पर 1960 मेंबनाया गया था। दर्शकों के बैठने केलिए स्टेडियम नुमा सीढ़ीदार सीटें लगाई गईं हैं। थियेटर में 577.5 वर्ग मीटर का कवर्ड एरिया है। उस समय यहां 1, 2 और 3 रुपये टिकट होता था।आज भी गेट पर बनी टिकट खिड़की पर पेंट से लिखे रेट देखे जा सकते हैं। पानी के ऊपर है स्टेज यह एरिया रिज का सबसे निचला इलाका है। थियेटर के नीचे रिज का पानी जमा हो जाता है। स्टेज बनाने के लिएपहले गार्टर बिछाए गए थे फिर लकड़ी की फ्लोरिंग की गई। यहांहजारों लीटर से ज्यादा पानी जमा हो जाता है।इसे निकालने के लिए मेनटेनेंस का काम देख रही संगीत नाटक अकादमी के लोगों को रोज पंप लगाकर पानीनिकालना पड़ता है। बरसातके दिनों में तो हालात और भी खराब हो जाते हैं। रिपब्लिक डे की झांकियां सजती थीं यहां 1997 तक गणतंत्र दिवस के मौके पर राजपथ पर दिखने वाली झांकियां इसी थियेटर की पार्किंग में सजती थीं।पार्किंग में कई हजार गाडि़यों के खड़े होने की जगह है। झांकियां तैयारकरने के लिए यहां कई दिन पहले से ही टेंटलग जाते थे। कलाकार और झांकियां तैयार करने वाले लोग यहां रहकर ही झांकियां तैयार करते थे। क्यों बंद हुआ थियेटर रिज को बचाने के लिए दिल्ली सरकार के चीफ सेक्रेटरी अगुवाई में रिज मैनेजमेंट बोर्ड का गठन किया गया। बोर्डने इस रिज को संरक्षित घोषित कर दिया। मामला सुप्रीम कोर्ट तकगया। एक कमेटी की रिपोर्ट आई। सर्वे हुआ।उसके बाद 1997 में यहां कार्यक्रम होने बंद हो गए।

दिल्ली मे कहा है. हे 'घटोत्कच का गांव'

वीरेंद्र वर्मा, नई दिल्ली।

दिल्‍लीमें एक ऐसा भी गांव भी है... जिसके जंगलों में कभी महाभारत कालीन घटोत्कच रहता था। दिलचस्प बात यह है कि इस गांव का नाम भी घटोत्कच से जुड़ा हुआ है। यह गांव नजफगढ़ से करीब 18 किलोमीटर ढू हरियाणा बॉर्डर पर है। गांव का नाम ढाँसा। यूं तो करीब 850 साल पुराना है लेकिन आज भी यहां के लोगों की जुबान पर घटोत्कच के किस्से हैं। हाभारत काल में जब पांडव अज्ञातवास के दौरान वन में विवरण. कर रहे थे तो भीम की मुलाकात हिडिम्बा नाम की राक्षसी से हुई थी।.। हिडिया और भीम की शादी हुई और: उनसे घटोत्कच पैदा हुआ। अवस्था में ही घटोत्कथ को विरक्ति हो गर्द और वह घमते घमते ठांसा के:

ज॑ंगलोंकेनजदीक आ गया। यह जंगल बेहद खूबसूरत था। ढांसा गांव के एक पुराने शिक्षक अशोक कुमार कौशिक बताते हैं कि इसी जंगल में घटोत्कच ने े तपस्या की थी। वह जंगल में कब तक रहा इसका कोई प्रमाण नहीं मिलते। इस तरह की लोक कहानियां उनके पूर्वज सुनाते आ रहे हैं। पीढ़ी दर पीढ़ी इस तरह की कहानियां सुनायी जा रही हैं। घटोत्कच ढांसा के जंगलों में तपस्या करने लगा। घटोत्कच ने यहां पर दृढ़ासान की मुद्रा में तपस्या की। बाद है दृढ़सन का नाम बिगड़कर ढढ़ांसा._. में दृढ़सन का नाम बिगड़कर ढढ़ांसा

इस गाव के बुजुगी रखी थी लाल किले की नींव।

वीरेंद्र वर्मा, नई दिल्ली।

देश की आन, बान और शान के प्रतीक जिस लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री हर साल 15 अगस्त के दिन झंडा फहराकर देश को संबोधित करते हैं उसकी नीव में पहली ईंट दिल्‍ली के ही एक गांव सुर जुर्गों ने रखी थी। दिल्ली के सबसे पुराने गांवों में शुमार यह गांव है पालम। इस ऐतिहासिक गांव से जुड़ी हैं तमाम ऐसी कहानियां, जो कम ही लोग जानते हैं। पालम गांव की चौधराहट से जुड़े किशनचंद सोलंकी बताते है कि जब 1639 में मुगल बादशाह ने लाल किले की नींव रखी थी तो पालम गांव के पांच बुजुर्गों को सम्मान के तौर पर बुलाया था। इन बुजुर्गों ने ही लाल किले की नींव में इँट रखी थी, क्योंकि गांव को 360 गांव की चौधराहट मिली हुई थी। गांव के ही कुछ और लोगों का यह भी कहना है कि पालम गांव की मिट्टी में काफी शक्ति है, इसलिए भी बुजुर्गों को बुलाया गया था, ताकि किले की नींव मजबूत रहे। भारत में मुगल साम्राज्य की नींव रखने वाला शासक बाबर पालम गांव में आकर ठहरा था। किशनचंद बतते हैं कि. जब बाबर दिल्‍ली आया तो पालम गांव... 7 में ही आकर ठहरा था, ऐसा भी सुनने. में आता है कि उसने पालम को अपनी. राजधानी बनाया था। बाद में अपनी राजधानी यहां से बदली। आज भी गांव. में बाबर के समय की एक मस्जिद है,. 7 साथ ही उसके समय बनाई गई बावड़ी.' है। इसलिए भी इस गांव का बहुत ज्यादा 1 ऐतिहासिक महत्व है। पालम गांव को बावनी भी बोला जाता है, क्योंकि पालम गांव की जमीन 52 गांवों: से लगती है इसलिए इसे बावनी कहा जाता है। बलजीत सिंह सोलंकी बताते.: हैं कि दिल्ली एयरपोर्ट के लिए इस गंव.._; की 1200 बीघा जमीन गयी ह । इसलिए. गांव के नाम पर ही इस एयरपोर्ट का नाम! पड़ा। इतना ही नहीं, इस गांव से 12 गांव." निकले हैं। ये गांव हैं यलम, बागहौला,.* शाहबाद मौहम्मदपुर, मटियाला, बिंदापुर, .!

रिपब्लिक डे परेड को ये लोग बनाते हैं कामयाब

वीरेंद्र वर्मा, नई दिल्ली।

गणतंत्र दिवस की परेड को देखकर हम गर्व महसूस करते हैं और राजपथ के भव्य नजारों को देखकर अपने देश पर नाज होता है। क्या आप जानते हैं कि पुलिस और सेना के साथ-साथ कुछ लोग और भी ऐसे हैं जो इस राष्ट्रीय पर्व को सफल बनाने में दिन-रात एक कर देते हैं। हम आपको ऐसे लोगों से रूबरू करा रहे हैं, जो सालों से राजपथ, इंडिया गेट और आसपास की चमकती सड़कों को साफ रखते हैं और फूलों की सजावट करके पूरे माहौल को खुशनुमा बना देते हैं। राजपथ पर कोई जानवर या कुत्ता पहुंचकर परेड में बाधा ना बने इसके लिए हमेशा सजग रहते हैं।

इतिहास ही नहीं, कई कहानियां भी छिपी है फिरोजशाह कोटला में

अखिलेश ।

1206 में 4९455 ऐबक के दिल्ली का सुल्तान बनने से इसके इतिहास में नया चैप्टर जुड़ गया। इससे पहले दिल्‍ली पर राजपूत राजा का शासन था। मुगलों के आने तक करीब 320 साल तक 5 वंशों ने दिल्‍ली पर शासन किया। इन्हीं में से एक तुगलक वंश (1321-1414) के ॥ शासकों ने करीब 100 साल तक राज चलाया। तुगलक वंश के तीसरे शासक फिरोजशाह तुगलक (1351-1388) ने दिल्‍ली में एक नया शहर बसाया। इसका नाम था-फिरोजाबाद। अभी जो कोटला फिरोजशाह है यह उसके दुर्ग का काम करता था। इसे रोज यानी फिरोज का महल कहा जाता था। माना जाता है कि फिरोजाबाद, हौज खास से पीर गायब (हिंदूराव हॉस्पटिल तक) तक फैला हुआ था। मगर, इतनी लंबी दीवार के होने की निशानी नहीं मिली है। इतिहासकार फिरोज़ाबाद को दिल्‍ली का पांचवां शहर मानते हैं। फिलहाल इस दुर्ग के अंदर सा ड छ इमारतों में एक मस्जिद है। इसके साथ ही इसमें अशोक स्तंभ है, जे एक पिरामिड जैसी इमारत पर खड़ा है। किले में

एक गोलाकार बावली भी है। इतिहासकारों का मानना है कि कोटला फिरोजशाह में कई महल थे। हालांकि, इनमें से किसी की पहचान नहीं हो पाई है। तीन-चार इमारतों को छोड़ दें तो अंदर कुछ बचा नहीं है। केवल इमारतों के अवशेष हैं। ह किले में तीन मंजिला पिरामिडीय इमारत है। यह | पत्थरों से बनाई गई है। इसकी हर मंजिल की ऊंचाई... कम होती गई है। इमारत की छत पर फिरोजशाह ने... अंबाला के टोपरा से स्तंभ लाकर लगवाया था। इस पर अशोक की राजाज्ञा अंकित हैं। यह ब्राह्मी लिपि में है। मौर्य शासक अशोक के इस स्तंभ की ऊंचाई करीब. 13 मीटर है। इसे सबसे पहले 1837 में जेम्स प्रिंसेप ने. पढ़ा था। ऐसा ही दूसरा स्तंभ फिरोजशाह ने मेरठ के

आसपास से मंगवाया था। उसे हिंदूराव अस्पताल के पास लगवाया। इतिहासकारों का कहना है कि इन द स्तंभों को नदी के जरिए लाया गया था। कोटला फिरोजशाह के अंदर की मस्जिद ऊंचाई वाले आधार पर खड़ी है। इसका नाम जामी मस्जिद है। मस्जिद की एक दीवार ही बची है। तुगलक काल में यह सबसे बड़ी मस्जिद थी। पकने 1398 में इस मस्जिद में इबादत की थी। यह तैमूर को इतनी अच्छी लगी कि इसकी जैसी ही मस्जिद समरकंद में बनवाई। इतिहासकार मानते हैं कि मस्जिद रॉयल महिलाओं के लिए बनवाई गई थी। किले में मौजूद बावली में आज भी पानी है। इसका इस्तेमाल नहाने और गर्मी से बचने के लिए किया जाता था। फिरोजशाह तुगलक को इतिहास, शिकार, सिंचाई और वास्तुकला में काफी रुचि थी। उन्होंने कई शिकारगाह जैसे- मालचा महल, भूली भटियारी का महल और पीर गायब बनवाए। कई शहरों की बुनियाद डाली। कुतुब मीनार, सूरज कुंड की मरम्मत करवाई। हौज खास के तालाब की भी मरम्मत फिरोजशाह ने करवाई थी। वहीं उनका मकबरा भी है। फिरोजशाह के शासन में दिल्ली में कई मस्जिदें भी बनाई गईँ।

अनदेखी दिल्लीो

देश की आनबान और शान के प्रतीक जिस लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री हर साल 15 अगस्त के दिन झंडा फहराकर देश को संबोधित करते हैं उसकी नीव में पहली ईंट दिल्ली के ही एक गांव के बुजुर्गों ने रखी थी। दिल्ली के सबसे पुराने गांवों में शुमार यह गांव है पालम। इस ऐतिहासिक गांव से जुड़ी हैं तमाम ऐसी कहानियां जो कम ही लोग जानते हैं। पालम गांव की चौदराहट से जुड़े किशनचंद सोलंकी बताते है कि जब सोलहवीं शताब्दी में मुगल बादशाह ने लाल किले की नींव रखी थी तो पालम गांव के पांच बुजुर्गों को सम्मान के तौर पर बुलाया था। इन बुजुर्गों ने ही लाल किले की नींव में ईंट रखी थी। क्योंकि गांव को 360 गांव की चौदराहट मिली हुई थी। गांव के ही कुछ और लोगों का यह भी कहना है कि पालम गांव की मिट्टी में काफी शक्ति है, इसलिए भी बुजुर्गों को बुलाया गया था, ताकि किले की नींव मजबूत रहे। उस समय यमुना नदी बिल्कुल लाल किले के साथ से होकर गुजरती थी। इस भी लोक कहानी है कि जब लाल किले की नींव रखी जाती थी तो नींव बह जाती थी, पालम गांव में दादा देव मंदिर परिसर में एक तालाब है जहां आज भी लोग मिट्टी छूते हैं। क्योंकि इस मिट्टी में बड़ी ताकत है इसलिए ये बुजुर्ग इस मिट्टी को लेकर गए थे और ईंट इसी मिट्टी से चिनी गई थी।

बाबर पालम गांव में आकर ठहरा था
भारत में मुगल साम्राज्य की नींव रखने वाला शासक बाबर पालम गांव में आकर ठहरा था। किशनचंद बताते हैं कि जब बाबर दिल्ली आया तो पालम गांव में ही आकर ठहरा था, ऐसा भी सुनने में आता है कि उसने पालम को अपनी राजधानी बनाया था। बाद में अपनी राजधानी यहां से बदली। आज भी गांव में बाबर के समय की एक मस्जिद है, साथ ही उसके समय बनायी गयी बावड़ी है। इसलिए भी इस गांव को बहुत ज्यादा ऐतिहासिक महत्व है।

क्या है पालम गांव का इतिहास
पालम गांव का 1200 साल के आसपास का है। श्री दादा देव मंदिर प्रबंधन समिति के अध्यक्ष बलजीत सिंह सोलंकी बताते हें कि यह गांव सिर्फ ऐतिहासिक ही नहीं है बल्कि आस्था से भी जुड़ा हुआ है। हमारे पूर्वज टोंक जिले के टोडा रॉय सिंह गांव से आए थे। इसके पीछे भी एक कहानी है। टोडा रॉय सिंह में दादा देव महाराज रहते थे। वे सारा दिन एक सिला पर बैठकर ध्यान में विलीन रहते थे। ऐसा भी लोक कहानी है कि उनके तप से प्रसन्न होकर भगवान ने उन्हें दिव्य शक्तियां प्रदान कीं। इन दिव्य शक्तियों के जरिए वे गांव वालों का भला करते थे। कुछ समय बाद वे सिला पर बैठे हुए ही ब्रह्मलीन हो गए। कुछ अरसे बाद इस गांव में अकाल पड़ गया। गांव वालों ने गांव छोड़कर जाने का निर्णय लिया, लेकिन वह भारी सिला वे बैलगाड़ी पर रखकर वहां से चल दिए। रास्ते में उन्हें भविष्यवाणी हुई की जहां भी ये सिला गिर जाए आप सभी वहां पर ही बस जाना। ये लोग चलते चलते पालम गांव आ गए। यहां आकर यह सिला गिर गई। लोगों ने वहां ही रहना शुरू कर दिया। आज जहां सिला है वहां पर श्री दादा देव जी का एक भव्य मंदिर है। लोग यहां दूर दूर से मन्नतें मांगने आते हैं और उनकी मुरादें पूरी होती हैं।

पालम गांव के नाम पर ही पड़ा था पालम एयरपोर्ट का नाम
पालम गांव को बावनी भी बोला जाता है, क्योंकि पालम गांव की जमीन 52 गांवों से लगती है इसलिए इसे बावनी कहा जाता है। बलजीत सिंह सोलंकी बताते हैं कि दिल्ली एयरपोर्ट के लिए इस गांव की 1200 बीघा जमीन गयी है इसलिए गांव के नाम पर ही इस एयरपोर्ट का नाम पड़ा। इतना ही नहीं इस गांव से 12 गांव निकले हैं। ये गांव हैं पालम, बागडौला, शाहबाद मौहम्मदपुर, मटियाला, बिंदापुर, असालतपुर, डाबड़ी, नसीरपुर, गोयला खुर्द, नांगल राया, पूठकलां। ये सभी गांव दादा देव महाराज को आराघ्य देव मानते हैं।

हर साल होता है दंगल और लगता है मेला दादा देव मंदिर में वैसे तो हर साल दशहरा पर मेला लगता है जिसमें लाखों लोग आते हैं। इसके अलावा हर साल तीज पर एक दंगल कराया जाता है। इस दंगल में जीतने वाले पहलवान को एक लाख का ईनाम दिया जाता है। दंगल में दिल्ली, हरियाणा, यूपी, राजस्थान सहित कई राज्यों से पहलवान आते हैं।

कोटला फिरोजशाह की मस्जिद और तैमूर की इबादत

1206 में कुतबुद्दीन ऐबक के दिल्ली का सुल्तान बनने से इसके इतिहास में नया चैप्टर जुड़ गया। इससे पहले दिल्ली पर राजपूत राजा का शासन था। मुगलों के आने तक करीब 320 साल तक 5 वंशों ने दिल्ली पर शासन किया। इन्हीं में से एक तुगलक वंश (1321-1414) के 11 शासकों ने करीब 100 साल तक राज चलाया।
तुगलक वंश के तीसरे शासक फिरोजशाह तुगलक (1351-1388) ने दिल्ली में एक नया शहर बसाया। इसका नाम था-फिरोजाबाद। अभी जो कोटला फिरोजशाह है यह उसके दुर्ग का काम करता था। इसे कुश्के-फिरोज यानी फिरोज का महल कहा जाता था। ऐसा माना जाता है कि फिरोजाबाद, हौज खास से पीर गायब (हिंदूराव हॉस्पटिल तक) तक फैला हुआ था। मगर, इतनी लंबी दीवार के होने की निशानी नहीं मिली है। इतिहासकार फिरोज़ाबाद को दिल्ली का पांचवां शहर मानते हैं।
फिलहाल इस दुर्ग के अंदर बची कुछ इमारतों में एक मस्जिद है। इसके साथ ही इसमें अशोक स्तंभ है, जो एक पिरामिड जैसी इमारत पर खड़ा है। किले में एक गोलाकार बावली भी है। इतिहासकारों का मानना है कि कोटला फिरोजशाह में कई महल थे। हालांकि, इनमें से किसी की पहचान नहीं हो पाई है। तीन-चार इमारतों को छोड़ दें तो अंदर कुछ बचा नहीं है। केवल इमारतों के अवशेष हैं।
किले में तीन मंजिला पिरामिडीय इमारत है। यह पत्थरों से बनाई गई है। इसकी हर मंजिल की ऊंचाई कम होती गई है। इमारत की छत पर फिरोजशाह ने अंबाला के टोपरा से स्तंभ लाकर लगवाया था। इस पर अशोक की राजाज्ञा अंकित हैं। यह ब्राह्मी लिपि में है। मौर्य शासक अशोक के इस स्तंभ की ऊंचाई करीब 13 मीटर है। इसे सबसे पहले 1837 में जेम्स प्रिंसेप ने पढ़ा था। ऐसा ही दूसरा स्तंभ फिरोजशाह ने मेरठ के आसपास से मंगवाया था। उसे हिंदूराव अस्पताल के पास लगवाया। इतिहासकारों का कहना है कि इन दोनों स्तंभों को नदी के जरिए लाया गया था।
कोटला फिरोजशाह के अंदर की मस्जिद ऊंचाई वाले आधार पर खड़ी है। इसका नाम जामी मस्जिद है। मस्जिद की एक दीवार ही बची है। तुगलक काल में यह सबसे बड़ी मस्जिद थी। तैमूर ने 1398 में इस मस्जिद में इबादत की थी। यह मस्जिद तैमूर को इतनी अच्छी लगी कि इसकी जैसी ही मस्जिद समरकंद में बनवाई। इतिहासकार मानते हैं कि मस्जिद रॉयल महिलाओं के लिए बनवाई गई थी। किले में मौजूद बावली में आज भी पानी है। इसका इस्तेमाल नहाने और गर्मी से बचने के लिए किया जाता था।
फिरोजशाह तुगलक को इतिहास, शिकार, सिंचाई और वास्तुकला में काफी रुचि थी। उन्होंने कई शिकारगाह जैसे- मालचा महल, भूली भटियारी का महल और पीर गायब बनवाए। कई शहरों की बुनियाद डाली। कुतुब मीनार, सूरज कुंड की मरम्मत करवाई। हौज खास के तालाब की भी मरम्मत फिरोजशाह ने करवाई थी। वहीं उनका मकबरा भी है। फिरोजशाह के शासन में दिल्ली में कई मस्जिदें भी बनाई गईं। इनमें खिड़की मस्जिद और बेगमपुरी मस्जिद प्रमुख हैं।
लोगों का ऐसा विश्वास है कि कोटला फिरोजशाह में जिन्न रहते हैं और उनसे जो भी मांगा जाए वह मिल जाता है। हर गुरुवार को किले बड़ी संख्या में लोग आते हैं। वे अगरबत्ती, दीये, दूध और कई तरह के अनाज लेकर आते हैं। हालांकि, इस किले के संरक्षण की जिम्मेदारी निभा रहा आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया इसे लोगों का अन्धविश्वास मानता है और लोगों को ऐतिहासिक इमारत को नुकसान न पहुंचाने की गुजारिश भी करता रहा है।उसका मानना है कि लोगों के अन्धविश्वास की वजह से इमारत को बहुत ही नुकसान पहुंचता है। अगरबत्ती और दीये से इमारत गंदी होती है और अनाज फैलाने से चूहों का आतंक बढ़ जाता है। लोगों का यह अन्धविश्वास करीब 40-50 साल से इस ऐतिहासिक इमारत को खराब कर रहा है। काफी कोशिशों के बाद भी इसे पूरी तरह रोका नहीं जा सका है।

दिल्ली में मुरादाबाद की पहाड़ी

आप यह सुनकर चौंक जाएंगे कि दिल्ली में भी मुरादाबाद की पहाड़ी है। आप सोच रहें होंगे की आखिर मुरादाबाद का दिल्ली से क्या कनेक्शन हैं। दिल्ली में कहां है मुरादाबाद की पहाड़ी। इस पहाड़ी के बारे में बहुत कम लोग जानते हैं। इस पहाड़ी पर एक कई सौ साल पुरानी शाही मस्जिद है और एक दरगाह है। दरअसल दिल्ली की इस मुरादाबादी पहाड़ी से मुरादाबाद का कोई कनेक्शन नहीं है। मुरादाबाद की पहाड़ी वसंत विहार और मुनीरका के बीच में पड़ती है। वैसे इस पहाड़ी के चारो ओर का इलाका आर्मी क्षेत्र से घिरा हुआ है, यह एरिया दिल्ली कैंट के तहत ही आता है। कहा जाता है कि पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय इंदिरा गांधी ने यह जमीन वक्फ बोर्ड को दी थी।

क्यों पड़ा इस पहाड़ी का नाम मुरादाबादी
शाही मस्जिद मुरादाबाद पहाड़ी के इमाम मौलाना शाह रशीद बताते हैं कि एक बहुत ही पहुंचे हुए पीर हुए हैं उनका नाम था मुराद अली शाह। उनके बारे में ज्यादा तो जानकारी नहीं मिलती लेकिन कहा जाता है कि उनके नाम पर ही इस पूरी पहाड़ी का नाम मुरादाबाद की पहाड़ी पड़ा। आज भी मस्जिद के बायीं ओर के छोर पर उनकी एक मजार है।

हर गुरूवार को लोग आते हैं यहां मन्नतें मांगने
इमाम मौलाना शाह बताते हैं कि हर गुरूवार को इस मजार पर लोग दिया जलाने आते हैं। खास बात यह है कि इस बाजार पर अधिकतर गैर मुसलमान लोग ही मन्नतें मांगने आते हैं। लोगों का कहना है कि यहां आकर दिल को बहुत ही सकून मिलता है। यहां पर एक अलग तरह का रूहानी अहसास होता है। लोगों का कहना है कि वे जो मन्नते मांगते हैं उनकी मुराद भी पूरी हो जाती है। यह सिलसिला काफी सालों से चल रहा है।

कई सौ साल पुरानी है शाही मस्जिद मुरादाबाद पहाड़ी
इमाम मौलाना रशीद बताते हैं कि पिछले 50 साल से ज्यादा से यह मस्जिद आबाद है। इसमें रोज नमाज अता की जाती है। यह मस्जिद कितनी पुरानी है इसका अंदाजा तो नहीं है, लेकिन यह मस्जिद सैंकड़ों साल पुरानी है। आसपास रहने वाले कुछ लोगों का कहना है कि यह मस्जिद मुगल काल के आसपास की है। आज भी यह मस्जिद पड़ी अच्छी हालत में है। मस्जिद में बड़े बड़े दरवाजे हैं। दो गुंबद हैं जो इसकी भव्यता को बढ़ाते हैं। मस्जिद के सामने बड़ा सा चबूतरा है। सामने गार्डन है। जो इसे और भी सुंदर बनाता है।

यहां चलता है मदरसा
मस्जिद के अंदर ही एक मदरसा चलता है जहां पर बच्चें तालीम हासिल करते हैं। इमाम के मुताबिक करीब 200 के आसपास बच्चे इस समय यहां तालीम ले रहे हैं।

कैसे पहुंचें मुरादाबाद की पहाड़ी तक
मुरादाबाद की पहाड़ी के बारे में आसपास के लोग भी कम ही जानते हैं। वसंत विहार के पश्चिमी मार्ग पर आकर वसंत विहार क्लब के सामने से एक रास्ता गया है। यह रास्ता सीधे डीडीए के बायो डायवर्सिटी पार्क की ओर जाता है। इस पार्क के पहाड़ी वाले रास्ते से होकर ऊपर जाएंगे एक बड़ा सा लोहे का गेट दिखायी देगा। इस गेट से निकलकर जैसे ही अंदर जाएंगे तो लगेगा जैसे बहुत ही खूबसूरत जगह पर आ गए हैं। जहां बायीं ओर एक खूबसूरत सी मस्जिद नजर आएगी और दायीं ओर जंगल नजर आएगा। मस्जिद पहाड़ी पर बनी हुइ है। इसी पहाड़ी को मुरादाबाद की पहाड़ी कहते हैं।

हमारे मुल्तान, लाहौर, मियांवाली और रावलपिंडीी

नई दिल्ली- पुलवामा की दिल दहलाने वाली घटना का असर ये भी हुआ कि बैंगलुरु में मशहूर कराची बेकरी के स्टाफ ने कराची शब्द को कवर कर दिया ताकि दंगाई उस पर हल्ला ना बोल दें। अपनी दिल्ली में ये शायद नौबत कभी न आए। इधर तो पाकिस्तान के तमाम शहरों के नामों पर कॉलोनियों से लेकर स्कूलों के नाम हैं। कभी किसी को इस मसले पर कोई दिक्कत नहीं हुई है। आपको पहाड़गंज में मुल्तानी ढांडा मिलेगा, तो पश्चिम विहार में न्यू मुल्तान नगर। दिल्ली के पंजाबी समाज में निश्चित रूप से सबसे ज्यादा मुल्तानी ही होंगे। ये सरहद पार वाले पंजाब का एक जिला है। मुल्तान को मस्जिदों और मक़बरों का शहर भी माना जाता है। दिल्ली-मुल्तान का एक तरह से पुराना संबंध भी रहा है। शेर शाह सूरी (1486-1545) ने दिल्ली- मुल्तान के बीच व्यापार और यातायात को बेहतर करने के लिए एक राजमार्ग का निर्माण करवाया था। इसी मुल्तानी बिरादरी ने देश के बंटवारे के बाद दिल्ली में आने के बाद ओल्ड राजेन्द्र नगर में मुल्तान डीएवीस्कूल स्थापित किया। गौर करें कि ये अधिकतर शाकाहारी हैं। इनके घरों में मांस का सेवन लगभग निषेध है। मुल्तानियों का दावा है कि दिल्ली वालों को शाही पनीर और पनीर टिक्का उन्होंने ही खाना सिखाया। मुल्तानी परिवारों में पनीर टिक्का लगातार खाया-पकाया जाता है। मुल्तानी समाज प्रति वर्ष सावन का महीना आते ही अपने एक खास पर्व को मनाने में जुट जाता है। इसका नाम है मुल्तान जोत महोत्सव। ये सारे यहां बसे मुल्तानियों को जोड़ता है। मुल्तान जोत महोत्सव क्या है? अखिल भारतीय मुल्तान युवा संगठन के प्रधान डॉ.महेंद्र नागपाल ने बताया कि सन 1911 में मुल्तान शहर से जोत महोत्सव की शुरू हुई थी। ये पर्व उस मुल्तान जोत की याद में ही मनाया जाता है जब भगत रूपचन्द्र मुल्तान से जोत लेकर पैदल हरिद्वार आए थे।तब से लेकर आज तक जोत महोत्सव आपसी भाईचारे, एकता और समृद्धि के लिए आयोजित किया जाता है।
इसी तरह से पाकिस्तान के हिस्से वाले पंजाब का एक शहर मियांवाली भी है। वहां से ही पकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान बीती जुलाई में संसद के चुनाव में निर्वाचित हुए थे। मियांवाली जिला पंजाब और खैबर पख्तूनख्वा सूबे ( जिसे पहले ड़ेरा इस्माइल खान कहते थे) की सीमा पर पर बसा है। दिल्ली में मियांवाली बिरादरी में खासी एकता है। इसी समाज से आते हैं आकाशवाणी दिल्ली के पूर्व कार्यकारी प्रोड्यूसर आदर्श आजाद अरोड़ा। वे बताते हैं कि “अब भी सारी मियांवाली बिरादरी सुख-दुख में एक दूसरे के साथ ख़ड़ी होती है। हमें पाकिस्तान से भले ही कोई मतलब नहीं है, पर मियांवाली नाम हमें अपने पूर्वजों के शहर से भावनात्मक रूप से जरूर जोड़ता है।”
पश्चिम दिल्ली में पाकिस्तान के हिस्से वाले भेरा शहर से आए शऱणार्थियों ने भेरा एन्क्लेव बनाया था। ये सरगोधा जिले का छोटा सा शहर है। आपको न्यू राजेन्द्र नगर में डेरा इस्माइल खान हायर सेकेंडरी स्कूल मिलेगा। ये पेशावर से करीब 300 किलोमीटर की दूरी है। न्यू राजेन्द्र नगर में पेशावर और इसके आसपास के शहरों से आए शरणार्थी परिवारों की भरमार है। इस स्कूल ने अपनी स्थापना के 70 साल पूरे कर लिए हैं। दिल्ली में भी लाहौरिए काफी तादाद में हैं। इन्होंने लाहौर से कोई कॉलोनी तो नहीं बनाई पर आपको वसुंधरा एन्क्लेव में लाहौर अपार्टमेंट मिलेगा। करोल बाग के आर्य समाज रोड पर लाहौर मांटेसरी स्कूल भी है। अब चलते हैं निजामउद्दीन क्षेत्र में। इधर रेलवे स्टेशन के करीब क्वेटा डी.ए.वी स्कूल है। बलूचिस्तान की राजधानी है क्वेटा।
पाकिस्तान सेना का मुख्यालय रावलपिंडी में है। इसी रावलपिंडी नाम से पुरानी सब्जी मंडी में रावलपिंडी सनातन धर्म हायर सेकेंडरी स्कूल है। पर दिल्ली में झंग और बन्नू जैसे पाकिस्तान के हिस्से वाले शहरों के नामों पर कुछ नहीं है। इधर झंग वाले तो खूब हैं। हां, फरीदाबाद भरा हुआ है बन्नूवाला वालों से। सिंधी भी राजधानी में लाखों की संख्या में हैं। पर इन्होंने अपने पीछे छूटे किसी शहर के नाम पर यहां कोई कॉलोनी या विद्यालय नहीं स्थापित की। पर आपको लाजपत नगर में कराची बेकरी मिल जाएगी।
कराची में दिल्ली
देश के बंटवारे के बाद दिल्ली वाले कराची गए तो वे अपने साथ दिल्ली की यादें लेकर जाना नहीं भूले। इन्होंने कराची में अपने लिए दिल्ली कॉलोनी तथा अति संभ्रात क्लिफ्टन क्षेत्र में दिल्ली पंजाबी सौदागरान सोसायटी और दिल्ली मर्कन्टाइल हाउसिंग सोसायटी स्थापित की। दिल्ली से करीब 1100 किलोमीटर दूर कराची में ये 70 वर्षो के बाद भी दिल्ली वाले ही बने हुए हैं। सिंध प्रांत की राजधानी कराची में भी है दिल्ली कॉलेज। उसे वहां पर बसे सभी दिल्ली वालों ने मिलकर स्थापित किया था। दिल्ली में दिल्ली जाकिर हुसैन कॉलेज है। कराची में भी है हमदर्द लैबोरेटरीज। उसे हकीम सईद साहब ने स्थापित किया था। उनके अग्रज हकीम अब्दुल हमीद साहब भारत में इस समूह को देखते रहे हैं। हकीम सईद का बचपन और जवानी पुरानी दिल्ली की गलियों में गुजरी थी। वे सिंध के गवर्नर भी रहे। आज से करीब 25 साल पहले सईद साहब दिल्ली में अपने बड़े भाई के कौटलिय मार्ग के बंगले में इस लेखक से बात करते हुए कह रहे थे – “ अरे भाई, ये शहर तो मेरे दिलीमें बसता है। कराची जाऊं या कहीं और रहने लगूं, पर रात को अगर कभी घर का सपना आता है, तो उसमें अपने पुरानी दिल्ली का घर ही होता है।”

दिल्ली ट्रिविया

यमुना पार का राजपथे

विवेक शुक्ला

एक राजपथ वो है जिधर से गणतंत्र दिवस की परेड गुजरती है। इसके अलावा, एक और भी है राजपथ। ईस्ट दिल्ली के विकास मार्ग को भी अब कुछ सरकारी अफसर और सियासी नेता राजपथ कहते हैं इसके बढ़ते महत्व के कारण। ये ईस्ट दिल्ली की जीवनरेखा है।दरअसल विकास मार्ग और यमुना पर बने पुल का खास रिश्ता रहा है। पुल 1975 में चालू हुआ। उसकेबाद से विकास मार्ग के विकास को मानो पर लग गए हों।
यमुनापार का बैंक स्ट्रीट
अब आप विकास मार्ग को बैंक स्ट्रीट भी मान सकते हैं। इधर आपको हरेक सरकारी और प्राइवेट बैंक की ब्रांच और एटीएम मिल जाएंगे। विकास मार्ग ईस्ट दिल्ली का कमर्शियल हबबन चुका है। और चार्टर्ड एकाउंटेंट (सीए) परीक्षा की तैयारी करने वालों के इधर अनेक कोचिंग सेंटर्स स्थापित हो चुके हैं। इधर हर रोज सैकड़ों बच्चे कोचिंग के लिए आते हैं।
कभी थी पगडंडी सी
अगर बात 1980 तक की करें तो विकास मार्ग छोटी सी रोड या कहें कि पगडंडी थी। इसके विकास और चौड़ीकरण के काम को उस दौर के दिल्ली के उप राज्यपाल जगमोहन और पूर्वदिल्ली के एक छत्र नेता हरकिशन लाल भगत की देखरेख में अंजाम दिया गया। इसके चौड़ीकरण के लिए इससे सटे घरों को तोड़ा गया। और 80 के दशक के बाद जब विकास मार्गपर स्वास्थ्य विहार, प्रीत विहार, निर्माण विहार वगैरह बने तो विकास मार्ग भी विकसित हो गया।

एक सड़क, दो नाम और भगत सिंह

विवेक शुक्ला

-ये शायद दुनिया की एकमात्र सड़क होगी जिसके दो नाम हैं। दोनों नाम प्रचलित भी हैं और डाक-तार विभाग में स्वीकार्य भी। हम बात कर रहे संसद मार्ग या पार्लियामेंट स्ट्रीट की।सड़कों के नाम बनते-बदलते रहेंगे पर इसका नाम शायद कभी न बदले।इसके दोनों तरफ खासमखास सरकारी विभागों और बैंकों की भव्य इमारतें हैं। अगर हम संसद मार्ग से इसके दूसरेकोने कनॉट प्लेस की तरफ पैदल ही चलें तो हमें मिलती हैं पीटीआई, रिजर्व बैंक, योजना आयोग ( अब नीति आयोग), डाक भवन,परिवहन भवन, बैंक आफ बड़ौदा और जीवन भारतीजैसी अहम इमारतें ।
संबंध भगत सिंह से
पार्लियामेंट थाने का जिक्र किए बगैर हम आगे नहीं बढ़ सकते। इस थाने का महान स्वाधीनता सेनानी शहीदे-आजम भगत सिंह और उनके साथी बटुकेश्वर दत्त से भी गहरा संबंध रहा है।इन दोनों ने 8 अप्रैल, 1929 को सेंट्रल असेंबली ( अब संसद भवन) में बम फोड़ा और गिरफ्तारी दी। इन दोनों को बम फेंकने के बाद पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया।
फिर दोनों को साल 1913 में बने पार्लियामेंट स्ट्रीट थाने में लाया गया। यहां पर उस मामले का एफआईआर लिखा गया था। तब एफआईआर उर्दू में ही लिखे जाते थे। उसे बाद मेंहिन्दी में लिखा गया। पार्लियामेंट थाने में वह यादगार तस्वीर आप देख सकते हैं,जब भगत सिंह यहां पर थे।
जंतर-मंतर भी
इसी संसद मार्ग पर एतिहासिक स्थल जंतर-मंतर और चर्च आफ नार्थ इंडिया भी है। नई दिल्ली के निर्माण के वक्त अंग्रेजों ने कनॉट प्लेस के ईद-गिर्द कुछ चर्च बनाए थे। अगर बातजंतर-मंतर की करें तो ये एक एक खगोलीय वेधशाला है। इसका निर्माण महाराजा जयसिंह द्वितीय ने 1724 में करवाया था। यह इमारत प्राचीन भारत की वैज्ञानिक उन्नति की मिसालहै।

अनाम आर्किटेक्ट की बेजोड़ कृतियां

विवेक शुक्ला

कितने दिल्ली वालों ने सुना है गणेश भीखाजी देवोलिकर का नाम? हालांकि उन्होंने राजधानी में कम से तीन बेहतरीन इमारतों क्रमश: सप्रीम कोर्ट, लोट्स टेंपल और भारत में अमेरिकीराजदूत के सरकारी आवास रूजवेल्ट हाऊस के डिजाइन तैयार किए, पर वे गुमनामी में ही रहे। वे जब सुप्रीम कोर्ट का डिजाइन बना रहे थे, तब केन्द्रीय लोक निर्माण विभाग(सीपीडब्ल्यूडी) के चीफ आर्किटेक्ट थे। वे सीपीडब्ल्यूडी के पहले भारतीय प्रमुख थे। गणेश भीखाजी देवोलिकर ने इसका डिजाइन तैयार करते समय इंडो-ब्रिटिश स्थापत्यकला कोआधार बनाया।
लोट्स टैंपल
नेहरु प्लेस के करीब बने लोट्स टैंपल का डिजाइन ईरानी आर्किटेक्ट फ़रीबर्ज़ सहबा ने गणेश भीखाजी देवोलिकर की देखरेख में ही तैयार किया था। गणेश भीखाजी देवोलिकर कीसलाह पर ही इसका डिजाइन कमल के फूल पर रखा गया। कहने की जरूरत नहीं है कि कमल का फूल शांति का प्रतीक है। गणेश भीखाजी देवोलिकर ने सेंट जेवियर्स स्कूल, राजनिवास मार्ग तथा कोला फैक्ट्री,नजफगढ़ का भी डिजाइन बनाया था। वे मराठी भाषी थे। उनकी छवि कड़क अधिकारी की थी।
रूजवेल्ट हाउस’
‘रूजवेल्ट हाउस’ का डिजाइन वास्तुकार एडवर्ड डुरेल स्टोन और गणेश भीखाजी देवोलिकर ने मिलकर तैयार किया था। कुछ वर्ष पहले अमेरिकी सरकार ने उसे सांस्कृतिक महत्व कीइमारत का दर्जा दे दिया है। 1958 में निर्मित और तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति ड्वाइट डी आइजनहावर (1953-1961) के शासन के दौरान पहली बना ‘रूजवेल्ट हाउस’ अमेरिकीदूतावास परिसर में ही है। गणेश भीखाजी देवोलिकर का 1978 में निधन हो गया था।

गोरे का दिल बसता दिल्ली में

विवेक शुक्ला

वेस्ट निजामउद्दीन के लिए जाना-पहचाना चेहरा है जिलियन राइट का। वो यहां के दूकानदारों से लेकर सब्जीवालों तक से हिन्दी में ही भाव-ताव करती हैं। उनका मूड खराब हो जाता हैजब ताज महल या हुमायूं का मकबरा जैसे पर्यटक स्थल पर उनसे विदेशी होने के कारण अधिक प्रवेश शुल्क मांगा जाता है। हिन्दी और उर्दू की प्रख्यात अनुवादक जिलियन राइट कहतीहैं, "मैं भारतीय हूं, अपना इनकम टैक्स देती हूं, फिर आप मेरे से अधिक एंट्री फीस क्यों ले रहे हो?" उनकी बात तो सही है।
अफसोस साइकिल ना चला पाने का
गिलियन राइट की जान बसती है दिल्ली में। वो यहां 1977 में आ गई थीं। तब से अब तक कितनी बदली दिल्ली ? कहती हैं, " मैं जब 40 साल पहले यहां आई थी तब ये शहर बहुतहरा-भरा था। तब से विकास के नाम पर पेड़ कटते रहे, हरियाली घटती रही। मुझे अब ऐसी बहुत सी चिडिय़ां दिखाई नहीं देती,जो पहले दिखती थीं। अब सड़कों पर साइकिल भी नहींचला पातीं हूं।” गिलियन राइट को इन सब बातों के बावजूद दिल्ली से बेहतर कोई शहर नहीं लगता। वो इस छोड़ नहीं सकतीं। अब बहुत पीछे छूट गया है ब्रिटेन।
नहीं होते बोर दिल्ली में
गिलियन राइट यहां विख्यात लेखक और पत्रकार सर मार्क टली के साथ रहती हैं। लंदन में बीबीसी में भी काम करती थीं। हिन्दी और उर्दू का इतना गहन अध्ययन किया कि भारत आनेके बाद राही मासूम रजा और श्रीलाल शुक्ला के उपन्यासों क्रमश: ‘आधा गांव’ और ‘राग दरबारी’का अंग्रेजी में अनुवाद ही कर दिया। दिल्ली में सब सबसे अच्छा क्या लगता है? जवाबमिलता है, दिल्ली में आप कभी बोर नहीं होते। यहां पर आपके दोस्त-यार आपसे मिलते-जुलते रहते हैं। ये सब बातें यूरोप के समाज में नहीं हैं।

किसने बनाया रविन्द्र भवन और चिड़ियाघर

विवेकशुक्ला

हबीब रहमान ने राजधानी दिल्‍ली में देश को आजादी मिलने के बाद बहुत सी खास इमारतों के डिजाइन तैयार किए। हबीब रहमान (195-1999) कलकता से दिल्‍ली आए। उन्होंने इधर सरकारी कालोनियों से लेकर सरकारी भवनों के डिजाइन तैयार किए। उन्होंने 196 में रविन्द्र भवन का डिजाइन बनाया। उनका ये राजधानी का पहला बड़ा प्रोजेक्ट था। इधर ही है ललित कला अकादमी, संगीत नाटक अकादमी और साहित्य अकादमी। फिरोजशाह रोड पर स्थित रविन्द्र भवन को देखकर आप तुरंत कहेंगे कि इसके डिजाइन में परम्पराओं और भविष्य के भारत की झलक मिलती है। क्यों रिजेक्ट हए डिजाइन ?

नेहरु जी ने रिजेक्ट र्ल्ल | किया था डिजाइन

प्रधानमंत्री जि जवाहरलाल नेहरु ने रविन्द्र भवन के सा 10028 खारिज कर दिया 1 था क्‍योंकि उसमें शि किसी सरकारी दफ्तर का पुट नजर आ रहा। हबीब रहमान ने दूसरे डिजाइन में जालियों के लिए जगह रखी। परिसर में बगीचों के लिए स्पेस निकाला। रविन्द्र भवन के परिसर में प्रवेश करते ही आपको लगता है मानो आप कला और संस्कृति के संसार में आ गए हों। उनके काम में कितनी विविधता रही। वे विजनरी वास्तुकार थे। उन्होंने आर्किटेक्ट की दुनिया की नई व्याकरण लिखी।

डाक तार भवन और र्ल्ल | एजीसीआर बिल्डिंग

हबीब रहमान ने ही दे आईटीओ पर था 6 ला एजीसीआर बिल्डिंग 728 प्ण्णा,र ह; औरइद्रास्थ ्ड ० ही भवन, संसद मार्ग कद उस" 8 के ५ गए आज. भवन, चिड़ियाघर, > कमर, 3 प्रेस पूर्व राष्ट्रपति फ़वरुद्दीन अली अहमद तथा मौलाना आजाद की मजारों के भी डिजाइन तैयार किए। आप समझ सकते हैं कि उनके काम में कितनी विविधता रही। वे विजनरी वास्तुकार थे। उन्होंने आर्किटेक्ट की दुनिया की नई व्याकरण लिखी। बता दें कि उनकी पत्नी इंद्राणी रहमान ने कुचिपुड़ी नृत्य के क्षेत्र में खासी ख्याति अर्जित की।

दिल्‍ली से नेताजी का है मजबूत कनेक्शन

विवेकशुक्ला

पुरानी दिल्ली वालों के लिए सुबह- शाम घूमने का एकमात्र स्तरीय पार्क सुभाष पार्क ही है। इसे पहले एडवर्ड पार्क कहा जाता था। इधर नेता जी की अपने साथियों के साथी लगी आदमकद मूर्ति का अनावरण 23 जनवरी, 1975 को उनके जन्म दिन पर तब के उप राष्ट्रपति बी.डी.जत्ती ने किया था। इसे बनाया था महान मूर्तिशिल्पी सदाशिवसाठे ने।।

तब दुर्गा पूजा में र्ल्र अचानक पहुंचे थे बोस

विवेकशुक्ला

देश को 'तुम मुझे खून दो, मु तुम्हे साल जैसा मो हु तिकारी नारा देने वाले न्क नेताजी सुभाष चंद्र बोस के € हे संभवतःपहली बारदिलली. वालों ने दर्श 1937 में किए .. " थे।वो दुर्गापूजा केदिन थे। ऋ$॥ #फकी नेताजी अष्टमी के दिन मंदिर मार्ग स्थित काली बाड़ी में अचानक पहुंचे थे। नेताजी तब दरियागंज के एक बंगाली परिवार के साथ ठहरे हुए थे। उसके बाद तो उनका यहां आना लगा रहता था।

नेताजी की आईएनए हकॉलोनी

विवेकशुक्ला

क्या आपको है अस्का ४ ट आईएनए कॉलोनी न का 7 का पूरा नाम मालूम 8224 सजा जे बता देंगे इंडियन नैशनल आर्मी। आप ठीक कह रहे हैं। पर इसका नाम आईएनए इसलिए पड़ा क्योंकि जिधर अब डीडीए की विकास सदन नाम की बिल्डिंग खड़ी है, उधर आईएनए के सैनिकों के लिए सरकार ने 1950 के आसपास कुछ फ्लैट बनाए थे। फिर उन्हें गिराकर बना था विकास सदन। भले ही फ्लैट ना रहे हों पर आईएएन कॉलोनी आबाद है।

खामोश, इधर ही सो रही हैं खास हस्तियां

विवेकशुक्ला

गोरों ने नई दिल्‍ली को 19॥ में देश की नई राजधानी बनाया और 196 में पृथ्वरीज रोड क्रिशचन सिमिटरी के लिए स्पेस मिला। यहां 1947 से पहले तक अंग्रेज ही दफन होते रहे। हालांकि बाद में हधर भारतीय ईसाई आए। इधर ही चिर निद्रा में हैं जेसिका लाल। वही जेसिका जिसकी हत्या कर दी गई थी 30 अप्रैल 1999 को। जेसिका लाल के एपिटैफ पर अंग्रेजी में जो लिखा है, उसका हिन्दी अनुवाद कुछ इस तरह से है, जिसने अचानक से हमें दर्दनाक हालातों में बिलखता हुआ छोड़ दिया।” इस कब्रिस्तान में काम करने वाले कुछ मुलाजिम बताते हैं कि जेसिका लाल के परिवार वाले इधर बीच-बीच में आते हैं।

इन्होंने ही बनवाया था राजधानी में एम्स

सिमिटरी में कदम रखते ही क#, क रु आपकी नजर दायीं तरफ एक कं घट छोटी सी कब्र पर जाती है। बा. की कब्र के ऊपर एपिटैफ (स्मृति #%॥/ है लेख) पर लिखा 'राजकुमारी 5 अमृत कौर | वो नेहह जी. : डा की पहली कैबिनेट में हेल्थ. न मिनिस्टर थीं। राजधानी में एम्स की स्थापना में उनकी अहम भूमिका थी। पंजाब के कपूरथला के राज परिवार से संबंध रखती थीं। उनका 194 में निधन हुआ था। उन्होंने ईसार्ड धर्म स्वीकार कर लिया था। हालांकि वो जन्म से सिख थीं। उनके नाम से साफ है। उससे कुछ और आगे बढ़ें तो एक कब्र उन अभागे मुसाफिरों की है,जो जापान एयर लाइंस के विमान के 14 जून।972 को हुए हादसे में मारे गए थे। ये विमान उसी जगह पर गिरा था.जिधर अब आबाद है वसंत कुंज। इस हादसे में 82 मुसाफिर मारे गए थे। ये ज्यादातर अमेरिकी और ब्राजील के थे। ये सांकेतिक कब्र मानी जा सकती है। इन दोनों ही कब्रों को देखकर समझ आ जाता है कि अब इधर फूल चढ़ाने के लिए भी शायद कोई नहीं आता। इन पर लगे एपिटैफ मिट रहे हैं।

यहीं मिलेगा देश के पूर्व राष्ट्रपति का परिचय

इधर ही है देश के अदा कर पूर्व राष्ट्रपति डा... हट के. आर. नारायणन की जा ब७! || की कब्र भी। इस >ननरी अ | पर लिखा है उनका ४ संक्षित परिचय।. 7 रा बताया जाता है, अब इधर भी किसी के पास वक्‍त नहीं आने का। उनके साथ ही उनकी पत्नी उषा जी भी चिर निद्रा में हैं। वो मूल रूप से बर्मा से थीं। केरल में जन्मे के.आर. नारायणन देश के दसवें राष्ट्रपति थे। उन्होंने ऋवणकोर विश्वविद्यालय से अंग्रेज़ी में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त करने के बाद लंदन स्कूल आफ इकोनोमिक्स में अर्थशास्त्र का अध्ययन किया। उनका कार्यकाल भारत की राजनीति में गुजरने वाली विभिन्‍न अस्थिर परिस्थितियों के कारण अत्यंत पेचीदा रहा। उनकी यु साल 2004 में हो गई थी। तब वे राष्ट्रपति नहीं थे।

हुक्मी माई, राष्ट्रपति भवन और दो राष्ट्रपति

विवेकशुक्ला

कौन थी हुक्मी मार्ई ? राष्ट्रपति भवन के भीतर की एक सड़क का नाम हुक्‍्मी माई रोड है। अगर आप दारा शिकोह रोड के रास्ते राष्ट्रपति भवन में गेट नंबर 37 से अंदर जाते हैं, तब आपको हुक्मी माई रोड मिलती हैं। ज्ञानी जैल ने राष्ट्रपति रहते हुए राष्ट्रपति भवन के भीतर की एक सड़क का नाम हुक्मी रोड रखवाया था। नामधारी सिख मा हुतीी माई को पूज्नीय मानता है। वो हिन्दू और सिख धर्म की प्रकांड विद्वान थीं। उनका जन्म पंजाब में सन 1870 के आसपास हुआ। वो विश्व बंधुत्व, प्रेम और भाई-चारे का संदेश देती रहीं।

नामधारी समाज मिला ज्ञानी जैल सिंह से

विवेकशुक्ला

कहते हैं कि जिन ः | रन का दिनों ज्ञानी जैल सिंह हक देश के राष्ट्रपति थे, ## २) उस दौरान राजधानी के नामधारी सिखों का एक प्रतिनिधिमंडल उनसे मिला। इसका नेतृत्व कर रहे थे नामधारी सिखों के वयोवृद्ध संरक्षक सेवा सिंह नामधारी। इन्होंने ज्ञानी जैल सिंह से आग्रह किया कि वे हुक्मी माई जी के नाम पर नई दिल्‍ली की किसी सड़क का नाम रखवा दें। जैल सिंह को हुक्मी माई की शख्सियत की जानकारी थी। उन्होंने तुरंत इस बाबत राष्ट्रपति भवन के अपने दफ्तर को कार्यवाही करने के निर्देश दिए। जाहिर है, राष्ट्रपति की इच्छा को लागू करने में देरी नहीं हुई। पर हुक्मी माई रोड शुरू में कर दिया गया था हुक्मी बाई मार्ग अहिल्या बाई मार्ग की तर्ज पर | लेकिन बाद में नामधारी सिखों की तरफ से एनडीएमसी को बताया गया कि शुद्ध नाम हुक्मी माई है ना कि हुक्मी बाई। अब ते दिल्‍ली पुलिस का यातायात विभाग भी इस सड़क को हुक्मी माई रोड ही कहता है।

आखिर क्‍यों चौंके ल्‍्ली डॉ. के. आर. नारायण

हुक्मी माई के बारे में हल जानकरी प्राप्त करने का मोह द्रश:: संवरण डाके,आर.नारायण है 7 ल्‍ भी नहीं कर सके थे। वे जब देश के राष्ट्रपति थेतव एक. ह।2 रस ३ दिन उनका काफिला हुड्मी जि 7 माई रोड से आगे बढ़ा तो शशि उनकी नजर हुक्मी माई रोड के बोर्ड पर पड़ी। वे चौंके इस नाम को पढ़कर। उन्होंने अपने स्तर पर इस नाम की असलियत जानने की भी चेष्टा की। एक दिन उन्होंने अपनी जिज्ञासा अपने स्टाफ के माध्यम से एनडीएमसी के पास भिजवाई । राष्ट्रपति के दफ्तर से मांगी गई जानकारी के बाद उन्हें हुक्मी माई के संबंध में विस्तार से जानकारी दी गई। उन्हें बताया गया कि हुक्मी माई ने भारतीय समाज में व्याप्त कुप्रथाओं, अंधविश्वासों, जर्जर रूबढ़ियों और पाखंडों पर हल्ला बोलते हुए जन-साधारण को धर्म के ठेकेदारों, पण्डों, पीरों आदि के चंगुल से मुक्त किया। उन्होंने प्रेम, सेवा, परिश्रम, परोपकार और भाई-चारे का संदेश दिया। डा. नारायणन इस जानकारी को प्राप्त कर संतुष्ट हो गए।

किसने किया था पहले फ्लाई पास्ट का नेतृत्व

विवेकशुक्ला

भारत के 1950 में आयोजित पहले गणतंत्र दिवस समारोह में पहली फ्लाई पास्ट का नेतृत्व स्क्वॉड्रन लीडर इदरीस हसन लतीफ कर रहे थे। वे हॉक्स टैम्पेस्ट लड़ाकू विमान उड़ा रहे थे। तब लड़ाकू विमानों ने वायुसेना के अंबाला स्टेशन से उड़ान भरी थी। लतीफ आगे चलकर भारतीय [मुसेना सेना के पहले मुस्लिम प्रमुख भी रह । उनके नाम पर दिल्‍ली कैंट क्षेत्र में एक रोड भी है। वे 18 साल की उम्र में 1941 में रॉयल इंडियन एयर फोर्स में शामिल हुए थे। वर्ष 1981 में रिटायर होने के बाद उन्हें महाराष्ट्र का राज्यपाल और फ्रांस में भारत का राजदूत नियुक्त किया गया था।

नेशनल स्टेडियम में ल्् ऐ ! गणतंत्र दिवस समारोह

पहले गणतंत्र दिवस पर परेड 2 हज नहीं निकली थी। परेड का के सिलसिला तो 1955 सेचालू. फछड हुआ था। गणतंत्र दिवस है चुन समारोह इरविन स्टेडियम में हुआ कट था। वहां राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र ढ४' *औ 1 प्रसाद घोड़े की बग्घी में बैठकर आयोजन स्थल पर आए। राष्ट्रपति जैसे ही स्टेडियम आए तो उन्हें 31 तोपों की सलामी दी गई। राष्ट्रपति ने संक्षित भाषण दिया। राष्ट्रपति के भाषण के बाद राजधानी के कुछ स्कूलों के छात्र-छात्राओं ने कुछ देर तक सांस्कृतिक कार्यक्रम पेश किए। जब इरविन स्टेडियम में कार्यक्रम चल रहा था, उस वक्‍त वहां पर गिनती के ही पुलिसकर्मी मौजूद थे। उस तारीखी दिन राजधानी के प्रमुख बाजारों में पहले गणतंत्र दिवस का असर साफ दिखाई देर रहा था। कनॉट प्लेस,चांदनी चौक,कश्मीरी गेट में आलोक सज्जा की गई थी। कनॉट प्लेस के हनुमान मंदिर और गुरुद्वारा बंगला साहिब में उस दिन देश के चौतरफा विकास के लिए विशेष प्रार्थनाएं हुई थीं। फिर सुस्वादु लंगर की भी व्यवस्था की गई थी।

अमर जवान ज्योति और गणतंत्र दिवस

इंडियागेट पर. ै डाकू १5... अमर जवान ज्योति हैं. बे ज् मिट श्र का श्रीगणेश 26 जिद व 27/88/2060 जनवरी, 1972 को जिया [व सी, तब की प्रधानमंत्री व हि इंदिरा गांधी ने किया 7 था। 3 दिसम्बर 1971 से 16 दिसम्बर 1971 तक पूर्वी पाकिस्तान में गत संग्राम के समय भारतीय सेना का पाकिस्तान के साथ युद्ध हुआ था। उसमें शहीद हुए भारतीय सैनिकों की स्मृति में अमर जवान ज्योति की शुरूआत की गई थी। 1972 से हर साल गणतंत्र दिवस पर देश के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, सेना के तीनों अंगों के प्रमुख अमर जवान ज्योति पर जाकर शहीद सैनिकों को श्रद्धांजलि देते हैं।

7 कृष्ण मेनन मार्ग के पीछे क्या है कहानी?

विवेकशुक्ला

हरबर्ट बेकर ने राजधानी को साउथ ब्लॉक, नॉर्थ ब्लॉक, जयपुर हाऊस, हैदराबाद हाऊस, बडौदा हाऊस जैसी शानदार 5. न और भव्य |) है इमारतें दीं। |... के वे नई दिल्‍ली 25 के निर्माण के दौरान काफी समय १, किंग जॉर्ज एवेन्यू ( अब कृष्ण मेनन रोड) के बंगले में रहते थे। इसी बंगले में श्री अटल बिहारी वाजपेयी भी 2004 के बाद से लेकर अपनी मत्यु तक रहे।

अटल ने बदला सिर्फ ल्ल्ी बंगले का नंबर ही

अटल जीवन भर उन्हीं इमारतों में हा! कामकाज करते रहे हिल 1) 2 ८ जिनके निर्माण में हु हर | ।॒ बेकर का महत्वपूर्ण रोल रहा था। हालांकि * (पाए बेकर और अटल जी के दौर में बंगले में मोटे तौर पर एक ही बदलाव हुआ। बेकर 8 नंबर में रहते थे, अटल जी ने 8 को करवा दिया था 6 ए। नई दिल्‍ली के निर्माण में बेकर के योगदान का सही से मूल्यांकन नहीं हुआ है। राष्ट्रपति भवन और संसद भवन का डिजाइन नई दिल्‍ली के चीफ आर्किटेक्ट एडविन लुटियन ने बेकर के सहयोग से तैयार किया था। वे एडविन लुटियंस के आग्रह पर साल 192 में भारत आए। दोनों पहले से मित्र थे।

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आने वाले 50 सालों र्ल्स | को भी रखा ध्यान में

बेकर ने भात के अंकुर अं से के मिजाज कक. खते हुए दी पा - हरा मो अपनी डिजाइन. कला जन की हुई इमारतों में. | जाली और छज्जों. शिव" लिलिि 2 के लिए जगह बनाई। उसके बाद तो ये एक ट्रेंड सा बन गया। बेकर बार-बार राजस्थान निकल लेते थे। वहां की पुरानी हवेलियों से लेकर किलों का अध्ययन करते। इसलिए ही उनके काम में ब्रिटिश के साथ- साथ मुगल और राजपूत वास्तुकला का अद्भुत संगम मिलता है। वे हरियाली के लिए स्पेस रखते थे। बेकर किसी बिल्डिंग का डिजाइन तैयार करते वक्‍त आगे के 50-60 वर्षों के बारे में सोचते थे। इसलिए उनकी इमारतों में अब भी ताजगी दिखाई देती है।

कब से भव्य हुई दिल्‍ली बीटिग रीट्रीट सेरेमनी

बीटिंग रीट्रीट के ता लुप्त लिए 1961 साल जरा ट 12% खास रहा। उस. दा ३ 1 सालगणतंत्र.. है 2 हम दिवस समारोह (३६८४४ मेंब्रिटग की... “1ीलीक० ८-६ ० महारानी एलिजेबेथ मुख्य अतिथि थीं। उन्होंने तब रामलीला मैदान में दिल्‍ली की जनता को एक समारोः में संबोधित भी किया था। उस साल प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु ने सेना मुख्यालय में मिलिट्री म्यूजिक विभाग के प्रमुख जी.ए. रॉबर्ट्स को निर्देश दिए कि वे भव्य बीटिंग रीट्रीट सेरेमनी की तैयारी करें। दिल्‍ली के एंग्लो इंडियन समाज से संबंध रखने वाले रोबटस ने नेहरू जी को निराश नहीं किया। उन्होंने बीटिंग रीट्रीट सेरेमनी को शानदार तरीके से कोरियोग्राफ किया। उसके बाद से माना जाता है कि बीटिंग रीट्रीट का स्वभाव 2016 बदला नहीं है।

बीटिंग रीट्रीट में बड़ा बदलाव 2016 से

बीटिंग रीट्रीट रा ७०, +प व्यायाल 206 के बाद सेना हिल: 43 "व के तीनों अंगों के. इन हम 1 मल अलावा दिल्‍ली प ० (कह फल पुलिस का बैंड भी... पनीर लक जुड़ गया। फिर गे इसमें बॉलीवुड संगीत का तड़का भी लगना चालू हो गया। इस बदलाव पर पर रमाध्यक् विजय ओबरॉय ने अपने स्तर पर भी जताया था। उनका कहना था कि बीटिंग रीट्रीट को तमाशा बनाया जा रहा है। विजय ओबराय की 1965 की जंग में एक टांग कट गई थी। बहरहाल, इस बार की बीटिय रीट्रीट सेरेमनी में गांधी जी के प्रिय भजन सुनने को मिल सकते हैं। इस बार की गणतंत्र दिवस परेड में भी बापू को झांकियों में पर्यात्त जगह मिली थी। आखिर देश बापू की 150वीं जन्मशती जो मना रहा है।

कैसा बीता था बापू का आखिरी दिन

विवेकशुक्ला

30 जनवरी, 1948। महात्मा गांधी ने दिन में साढ़े चार बजे गाय का दूध, कुछ कच्ची सब्जियां और संतरे खाए। वे यह सब बिड़ला हाउस (अब 30 जनवरी मार्ग स्थित गांधी स्मृति) के अपने कक्ष में बैठकर खा रहे थे। उस समय वहां पर देश के उप प्रधानमंत्री सरदार पटेल भी थे। दोनों के बीच बातचीत चल रही थी। वो खिंचती ही जा रही थी। तब बापू को आभा ने इशारों में कहा कि उनकी प्रार्थना का समय हो रहा है। प्रार्थना सभा 5 बजे प्रारंभ हो जाती थी। उसके बाद बापू सरदार पटेल से लगभग 542 बजें विदा लेकर प्रार्थना सभा की तरफ बढ़े। उनके साथ आभा और मनू भी थीं। प्रार्थना सभा स्थल पर के.डी. मदान भी बैठे थे। वे अब 94 साल के हो गए हैं। वसंत विहार में रहते हैं। वे बापू की प्रार्थना सभा की आकाशवाणी के लिए रिकॉर्डिंग करते थे। एक दिन पहले बापू की सभा में चिपको आंदोलन के प्रणेता सुंदललाल बहुगुणा भी मौजूद थे।

जब बापू पर चली थीं द गोलियां

के.डी. मदान को " "राहत याद है जब नाथूराम मिल गोडसे ने बापू पर 5 गोलियां बरसाईं " थीं। जब गांधो जी ) रु प्रार्था सभा स्थल ह पहुंचे तब वक्‍त था 516 मिनट | हालांकि ये कहा जाता है कि 5.7 बजे उन पर गोली चली। मदान कहते हैं कि जब पहली गोली चली तो उन्हें लगा कि कोई पटाखा चला है। तब ही दूसरी गोली चली। इससे पहले कि वे कुछ समझ पाते तीसरी गोली भी चली। उन्होंने अपनी आंखों से देखा था नाथू राम गोडसे को गोली चलाते हुए। मदान नफरत करते हैं गोडसे से। वे उसके बारे में बात करने से बचते हैं। खूनसे लथपथ बापू को बिड़ला हाउस के भीतर लोग जाते हैं। बापू को गोली लगने के दस मिनट के भीतर डॉ. डी.पी. भार्गव भी वहां आ जाते हैं। वे बापू को मृत घोषित कर देते हैं।

गोडसे सेकौन मिलना चाहता था?

महात्मा गांधी के किला नाथू राम गोडसे को बिड़ला हाउस में प्रार्थना सभा में " दे थ्ो आए लोगों ने पकड़कर चि है 2 पुलिस के हवाले कर दिया ४. था। उसे तुलगक रोड के इंस्पेक्टर दसोंधा सिंह और कि. 7 72 संसद मार्ग थाने के डीएसपी जसवंत सिंह वगैरह तुगलक रोड थाने में ले गए थे। ये बात होगी शाम साढ़े छह बजे के आसपास की। तब वहां पर गांधीजी की हत्या का एफआईआर लिखा जा रहा था। थाने के एएसआई डालू राम कनॉट प्लेस में एम-56 में रहने वाले नंदलाल मेहता से पूछ कर एफआईआर लिख रहे थे। ये प्रक्रिया जब पूरी हो रही थी तब बापू के सबसे छोटे पुत्र देवदास गांधी तुगलक रोड थाने में आते हैं। वे ६402९ पुलिस अफसरों से आग्रह करते हैं कि उन्हें गोडसे से मिलवा दिया जाए। पर उन्हें यह इजाजत नहीं मिली थी। देवदास गांधी तब हिन्दुस्तान टाइम्स के संपादक थे।

बापू की अंतिम यात्रा, बिलखती दिल्‍ली

विवेकशुक्ला

विवेकशक्ला . 'ः बापू की मौत से अवाक दिल्‍ली 31 जनवरी, 1948 को उनकी अंतिम यात्रा में शामिल होने के लिए सुबह से ही शवयात्रा के रूट पर आने लगी थी। सुबह लगभग साढ़े ग्यारह बजे बिड़ला हाउस से शव्यात्रा राजघाट की तरफ बढ़ने लगी। सैकड़ों लोगों ने गांधी जी की मौत के गम में अपने सिर मुंडवा लिए थे। शवयात्रा बिड़ला हाऊस से जनपथ, इंडिया गेट और आईटीओ होते हुए 4:25 बजे राजघाट पहुंची। शववाहन पर पंडित नेहरू, सरदार पटेल और गांधी जी के दो पुत्र रामदास और देवदास भी बैठे थे। इन्होंने ही अपने पिता को मुखाग्नि दी थी।

आकाशवाणी से शवयात्रा की कमेंट्री

ये शायद पहली बार हो रहा था कि आकाशवाणी शवयात्रा # और फिर अंत्येष्टि का आंखों | ओ देखा हाल सुना रही थी। कमेंट्री जहर सुनाने का दाचित्व रेडियो की का मय महान हस्ती मेलविल "8 पर था। वो सुबह छह बजे ही बिड़ला हाउस पहुंच गए। उनकी भावपूर्ण कमेंट्री सुनकर करोड़ों हिन्दुस्तानियों की आंखें नम हुईं थीं। वे देवकीनंदन पांडे और जसदेव सिंह जैसे रेडियों की दुनिया के बड़े नामों के गुरु थे। मेलविल डिमेलो एंग्लो इंडियन थे। वे साकेत में रहते थे।

राजघाट पर कौन- कौन मौजूद था?

गांधी जी की गए ; अंत्येष्टि में भाग... # पक 6 # लेने के लिए पहले ्षि ॥ हक रथ से राणघाट पर. # 0 २ न लार्ड माउंटटटन, शष्ट पर्क॑-ी | उनकीपलीपमेला ..... माउंटबेटन, भारतीय सेना के ब्रिटिश कमांडर इन- चीफ राय बाउचर वगैरह मौजूद थे। बापवे जी ने पिता को मुखाग्नि दी थी। तब राजघाट पर कोई रो रहा था, तो किसी की आंखें नम थीं। राजघाट बार-बार बापू अमर रहे के नारों से गूंजने लगता था। अंत्येष्टि समाप्त हुई। महात्मा गांधी की अस्थियों को इलाहाबाद में संगम में भी प्रवाहित किया गया। आगे चलकर राजघाट का डिजाइन वानू भूपा ने तैयार किया और इसकी लैडस्केपिंग एलिश पर्सी लैंकस्टेर ने की।

बजट, बेकर और दिल्‍ली की इमारतें..

विवेकशुक्ला

केन्द्रीय वित्त मंत्री पीयूष गोयल आज वर्ष 2019-20 का केन्द्रीय बजट संसद भवन में पेश करेंगे। वे संसद भवन जाने से पहले वित्त मंत्रालय के मुख्यालय यानी नॉर्थ ब्लॉक में भी अपने अधिकारियों के साथ मिलेंगे। संयोग देखिए कि देश के आम बजट से जुड़ी दिल्‍ली की इन दोनों बेहतरीन इमारतों का डिजाइन हरबर्ट बेकर ने तैयार किया था। बेकर ने भारत आने से पहले 1892 से 1912 तक दक्षिण अफ्रीका और केन्या में बहुत से सरकारी भवनों और गिरिजाघरों के भी डिजाइन बनाए थे पर उन्होंने राजधानी के किसी गिरिजाघर का डिजाइन नहीं तैयार किया।

पाक बडी का काली बाड़ी से कनेक्शन?

प्रणव कुमार मुखर्जी साल ध 2009-207 के बीच में देश हर के वित्त मंत्री रहे। वेहर बार. आअर“प बजट पेश करने से पहले ० मंदिर मार्ग पर स्थित नई #” रा दिल्‍ली काली बाड़ी में पूजा. हि ः अर्चना करने के लिए अवश्य पहुंचते थे। उनकी इस काली बाड़ी के प्रति गहरी आस्था रही है। वे वित्त मंत्री के रूप में तालकटोरा रोड में ही रहते थे। इसलिए अपने सरकारी आवास से काली बाड़ी आने-जाने में उन्हें 15-20 मिनट का ही समय लगता होगा। प्रणव कुमार मुखर्जी नई दिल्ली काली बाड़ी के मैनेजमेंट से भो जुड़े रहे हैं। इसकी स्थापना 1930 में हुई थी।

मिंटो रोड से नॉर्थ ब्लॉक से जुड़ाव

केन्द्रीय बजट का हू." सतह ण पड +:याउ मिंटो रोड पर स्थित किए हा आजा भारत सरकार की ्ि क प्रेस से दशकों .. हि 5 के [४ संबंधरहा इसी वा क विशाल प्रेस में. म:--+>-या हर बजट से जुड़े पेपप सन 1995 तक छपते रहे। जिन दिनों इसकी छपाई का काम चलता था, उस दौरान प्रेस को चारों तरफ से सुरक्षा कर्मी घेर लिया करते थे। पर बाद के दौर में वित्त मंत्री का बजट भाषण नॉर्थ ब्लॉक के भूतल में लगी प्रेस में ही छपने लगा। यह नॉर्थ ब्लॉक के निर्माण के समय नहीं थी। ये प्रेस बाद में स्थापित की गर्ई थी। एक बार बजट भाषण नॉर्थ ब्लॉक में छपने लगा तो बजट से जु डे कमोबेश सारे पेपर मायापुरी स्थित सरकारी प्रेस में छपने लगे। यानी मिंटो रोड प्रेस का महत्व घटने लगा। अब तो इसे तोड़ा जा रहा है।

क्या होता है राष्ट्रपति भवन दिवस?

विवेकशुक्ला

डा. राजेन्द्र प्रसाद ने देश के पहले राष्ट्रपति का पदभार ग्रहण करने के बाद 1 फरवरी, 1950 को राष्ट्रपति भवन में सपरिवार रहना शुरू कर दिया था। 26 जनवरी, 1950 से इसे राष्ट्रपति भवन कहा ही जाने लगा। इसी उपलक्ष्य में यहां हर वर्ष | फरवरी को राष्ट्रपति भवन दिवस मनाया जाता है। इस दौरान सांस्कृतिक कार्यक्रम और राष्ट्रपति भवन के स्टाफ और उनके परिवारजनों के बीच खेल कूद प्रतियोगिताएं आयोजित होती हैं। इनके विजेताओं को आज यानी 2 फरवरी को राष्ट्रपति श्री रामनाथ कोविंद पुरस्कृत करेंगे।

राष्ट्रपति भवन को बनाने वाले ठेकेदार

आमतौर पर राष्ट्रपति भवन की चर्चा होने पर इसके डिजाइनर एडविन लुटियंस की ही बात होती है पर इसके मुख्य इंजीनियर ह्यूज कीलिंग थे। नई दिल्ली क्षेत्र की जिस सड़क को अब टालस्टाय रोड कहा जाता है, उसका पहले नाम हयूज कीलिंग रोड ही था। एक बात और कि राष्ट्रपति भवन के निर्माण में दो भारतीय ठेकेदारों हासन-अल-राशिद और सरदार सोभा सिंह गा रूप से जुड़े थे। हासन अल-राशिद लाहौर से । वे नई दिल्‍ली के निर्माण के बाद वापस लाहौर लौट गए थे। सोभा सिंह यहां पर ही रहे। उन्होंने अपने लिए । जनपथ पर बंगला बनवाया था।

मुगल गार्डन का खुलना |

गणतंत्र दिकस से ही ब कि उत्साह का माहौल अर िल बनना शुरुहो. हा जाता है। राष्ट्रति शनि आओ भवनदिवसके.... का फौरन बाद मुगल गार्डन के खुलने का समय भी आ जाता है। इधर कौन सी प्रजाति के तल लगेंगे, इसका फैसला लिया था डब्ल्यू आर. मुस्टो ने। वे नई दिल्‍ली के निर्माण के वक्‍त यहां के बागवानी विभाग के चीफ थे। उन्होंने इधर की जलवायु को देखते हुए पेड़-पौधे लगवाए। बहरहाल, मुगल गार्डन इस वर्ष 7 फरवरी से खुलेगा। निश्चित रूप से फूल प्रेमियों को मुगल गार्डन के खुलने का इंतजार रहता है। आप भी इधर गुलों के विभिन्‍न रंगों और महक का आनंद आगामी 10 मार्च तक ले सकते हैं।

गुरुदेव रविन्द्रनाथ टैगोर कनॉट प्लेस में

विवेकशुक्ला

गुरुदेव रविन्द्रनाथ टैगोर को जनवरी, 1940 में अपनी संगीत मंडली के साथ रीगल थियेटर में अपना कार्यक्रम प्रस्तुत करना था। वे यहां शांति निकितन के लिए धन जुटाने के लिए आए थे। तब रीगल में नाटक और संगीत के कार्यक्रम भी आयोजित होते थे। उस दौरान महात्मा गांधी भी यहां थे। उन्हें जब पता चला कि गुरुदेव संगीत का पास फहुंचा करेंगे तो वे न उनके पास पहुंचे। तब 8 दरियागंज के एक बंगाली के पास ठहरे थे। बापू ने उन्हें 20 हजार रुपये का चेक दिया।

पुरानी दिल्‍ली में कब आए गुरुदेव टैगोर

गुरुदेव का दिल्‍ली कह में 1904 से ही कद नि रे आना हो रहा था। हु कर वे24 अक्तूबर, है. तक पर 1904 को जामा जी मस्जिद से सटे इंद्रप्रस्थ हिन्दू कन्या विद्यालय में आए थे। वो विजिटर्स बुक में लिखते हैं, “ मैं इन्द्रप्रस्थ हिन्दू गर्ल्स स्कूल में आकर बेहद प्रसन्‍न हुआ हूं। इसे जिस निष्ठा और निश्चल भाव से संचालित किया जा रहा है, इससे मैं बहुत प्रभावित हुआ हूं।

रायसीना बंगाली स्कूल में किया उद्घाटन

विन्द्रनाथ टैगोर न 1940 में मंदिर मार्ग ( तब रीडिंग रोड) | जा स्थित रायसीना । हिल बंगाली स्कूल में आए। वे अपनी मृत्यु से 8 माह पहले रायसीना स्कूल में आए थे। उनकी मृत्यु 7 अगस्त, 1941 को हुई। इसलिए माना जा सकता है कि वे रायसीना स्कूल में जनवरी, 1940 में आए होंगे। सही-सही तारीख की जानकारी स्कूल के पास भी उपलब्ध नहीं है। उन्होंने तब रायसीना स्कूल की नई लाइब्रेयरी का उद्घाटन किया था।

रोड से हटाया, पर लेन पर अब भी औरंगजेब!

विवेकशुक्ला

उन्हें औरंगजेब रोड नाम नाफ्संद था लिहाजा उन्होंने इसका नाम बदल दिया। औरंगजेब रोड, जो अब हो गया है एपीजे वुल कलाम रोड। पुराना नाम तब से चल रहा था जब नई दिल्‍ली का लुटियंस जोन बनकर तैयार हुआ था। ये बातें हैं साल 1931 तक की। इस दौरान नई दिल्‍ली का निर्माण पूरा हो गया था। मुगल सल्तनत को दक्‍्कन तक लेकर जाने वाले औरंगजेब के नाम को तो रोड से बदलवा दिया। लेकिन, औरंगजेब का नाम अब भी यहां कहीं बाकी है। इस रोड से सटी औरंगजेब लेन अब भी पुराने नाम से ही मौजूद है। औरंगजेब रोड के मुकाबले औरंगजेब लेन छोटी जरूर है।

बाबर और जहांगीर ह को नहीं मिली जगह

ये अजीब इत्तेफाक बम है कि मुगल काल रा शतक के संस्थापक धो बाबर और मुगल * बादशाह जहांगीर ४7% 1 को लुटियंस दिल्‍ली ला में जगह नहीं मिली। दिल्‍ली से करीब पानीपत में सन 1526 में हुई जंग में इब्राहिम लोधी को शिकस्त देकर जिस बाबर ने भारत में मुगल शासन की नींव रखी उसके नाम पर एक मामूली सी सड़क है। बाबर रोड सटी हुई है बंगाली मार्केट से। आपको जहांगीर रोड मिलेगी मिन्‍्टो रोड में। ये भी बेहद छोटी-मामूली सी सड़क है। ये वहां से हल रू होती है जहां पर छत्रपति शिवाजी की मूर्ति लगी है । ये खत्म होती है गांधी मार्किट पर।

आज भी लुटियंस ल्ली जोन में है मुगल

हुमायूं, अकबर, हट अ ले अकाल शाह के 4.28 का 4 5 गा पर एलीट लुटियंस «| निज 2 जोन में सड़कें." ह दी हैं। ये तीनों सड़कें / फर | कि आसपास ही हैं। ' बा शाहजहां रोड पर यूपीएससी की भव्य इमारत है। इधर ही जलसेना का एक प्रमुख दफ्तर भी है। मुगल दौर के अंतिम चिराग बहादुर शाह जफर के साथ भी अंग्रेजों ने इंसाफ नहीं किया उन्होंने उनके नाम पर नई दिल्‍ली या शहर के किसी भी भाग में किसी सड़क का नाम नहीं रखा। क्या इसलिए कि उन्होंने ही सन 1857 की क्रांति की अगुवाई की थी? हालांकि बाद के दौर में दिल्‍ली-मथुरा रोड का नाम कर दिया गया बहादुरशाह जफर मार्ग। ये सन 1968 में किया गया।